________________ 456 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) आते रहें तो फिर ऐसा कहा जाएगा कि सहजता टूट गई? दादाश्री : सहजता टूट ही जाएगी न! सहजता टूट जाए तो उससे कहीं आत्मा खाने नहीं लगता, वह तो खानेवाला ही खाता है। अंत में देह को सहज करना है। आहारी बनी है, लेकिन सहज करना है। सहज होने की ही ज़रूरत है। सहज होने में टाइम लगेगा लेकिन सहज अर्थात् पूर्णता। सहज अर्थात् संपूर्ण अप्रयत्न दशा। अप्रयत्न दशा से चाय आए, भोजन आए तो हर्ज नहीं है। ज्ञानीपुरुष किसे कहते हैं? जो निरंतर अप्रयत्न दशा में रहें, उन्हें। पूरा जगत् प्रयत्न दशा में हैं और आप यत्न दशा में हो। अच्छा-बुरा करते हो, उसमें दखलंदाजी करते हो, आपको ऐसा होगा कि इस पुद्गल का वंश चला जाएगा तो क्या होगा? इस पुद्गल का वंश कभी भी जाता नहीं है। ज्ञाता-दृष्टा और अक्रिय, ऐसा है आत्मा। उसे यत्न भी नहीं होते हैं और प्रयत्न भी नहीं होते हैं। प्रश्नकर्ता : आपमें आत्मा जुदा बरतता है, इसका मतलब एक-एक प्रदेश पर सभी जगह पर वह जुदा बरतता है? दादाश्री : हाँ, सभी जगह पर। है ही जुदा, आपका भी जुदा ही है। प्रश्नकर्ता : है तो जुदा ही लेकिन यह बरतने की बात है न! दादाश्री : बरतना अर्थात् 'खुद का ज्ञान सर्वस्व प्रकार से है।' जितना अज्ञान है उतना नहीं बरतेगा। प्रश्नकर्ता : लेकिन उसका अर्थ ऐसा है कि उसी अनुसार पूरे शरीर में बरतता है? दादाश्री : हाँ, उसी अनुसार बरतता है। जितना बरते उतना सहज। ज्ञान होने के बाद देह सहज हो जाती है क्योंकि जहाँ पर क्रोध-मान-माया लोभ खत्म हो चुके हैं, वहाँ पर सहजता उत्पन्न होती है। प्रश्नकर्ता : सहज हो जाना, वही बड़ी बात है।