________________ [5] आत्मा और प्रकृति की सहजता से पूर्णत्व 455 मन-वचन-काया। वह पुद्गल तो है ही लेकिन उसमें बीच का इगोइज़म भाग चला गया। जिसे स्ट्रेन हो रहा था, वह चला गया, जो थक रहा था वह चला गया। जो परेशान हो जाता था वह चला गया। वे सब चले गए। प्रश्नकर्ता : तो बचा कौन? दादाश्री : कुछ भी नहीं। यह सहज बचा। अंदर किसी और की दखलंदाजी नहीं रही। प्रश्नकर्ता : इस देह से क्रिया करनी हो, वाणी है लेकिन उसमें उस अहंकार की ज़रूरत पड़ती है न? दादाश्री : कोई ज़रूरत नहीं है। कॉज़ेज़ करनेवाला ही चला गया वहाँ से ! सिर्फ इफेक्ट ही बचा। प्रश्नकर्ता : तो फिर आप जो कहते हो न कि जब तक अहंकार हस्ताक्षर न करें, तब तक क्रिया नहीं होती, तो फिर वह कौन सा अहंकार pic दादाश्री : डिस्चार्ज अहंकार। प्रश्नकर्ता : तो इस डिस्चार्ज अहंकार की क्रिया में, उसके परिणाम में क्या फर्क होता है? दादाश्री : सहज! प्रयास करनेवाला नहीं रहता, सहज होता है। प्रश्नकर्ता : हाँ, लेकिन वह जो सहज होता है उसमें वो प्रयास करनेवाला अहंकार नहीं रहता लेकिन डिस्चार्ज अहंकार तो रहता है न उसमें? दादाश्री : उसमें हर्ज नहीं है, वह तो रहेगा ही न! उसका तो वह सबकुछ मृतपाय। वही कहलाती है सहज क्रिया। ज्ञानी सदा अप्रयत्न दशा में प्रश्नकर्ता : भोजन याद आए, चाय याद आए, ऐसे सब विचार उन्हें