________________ 454 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) दादाश्री : प्रयास में दखलंदाज़ी है, वह झंझट है। प्रश्नकर्ता : दखलंदाजी का भोगवटा खुद को आता है कि दखलंदाजी से मन-वचन-काया में बदलाव हो जाता है? दादाश्री : उससे बदलाव होनेवाला भी नहीं है। प्रयास किया है इसलिए अप्रयास नहीं कहलाएगा। प्रश्नकर्ता : वह ठीक है लेकिन वह जो प्रयास होता है, उससे मनवचन-काया की प्रकिया में कोई बदलाव आता है? दादाश्री : कोई भी बदलाव नहीं आता! प्रश्नकर्ता : तो फिर प्रयास करने से क्या परिणाम उत्पन्न होते हैं? दादाश्री : वह तो सिर्फ उसका अहंकार है कि 'मैं कर रहा हूँ!' प्रश्नकर्ता : उससे अगले जन्म की जवाबदेही आती है? दादाश्री : हाँ, अगले जन्म की जवाबदेही लेता है क्योंकि वह रोंग बिलीफ है। प्रश्नकर्ता : और अगर वह रोंग बिलीफ छूट जाए तो फिर ऐसा कहा जाएगा कि प्रयास करनेवाला चला गया? दादाश्री : फिर अप्रयास दशा, सहज हो गया। मैं खाता-पीता हूँ, वह सब सहज कहलाता है। प्रश्नकर्ता : तो रोंग बिलीफ थी तब प्रयास करनेवाला कहलाया, उस रोंग बिलीफ के जाने के बाद ऐसा क्या होता है? दादाश्री : कुछ भी नहीं होता, दखल चली जाती है। प्रश्नकर्ता : लेकिन जिसे रोंग बिलीफ थी, क्या उसका अस्तित्व रहता है फिर? दादाश्री : एक तरफ आत्मा और एक तरफ यह देह, अप्रयास देह,