________________ 450 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) प्रश्नकर्ता : उसमें भी जो पाँच आज्ञा में रहते हैं, उतने ही सहज हैं न? दादाश्री : हाँ, उतने ही, बाकी के नहीं! सहज समाधि प्रश्नकर्ता : कोई व्यक्ति सहज समाधि की स्थिति में रह सकता है या नहीं? दादाश्री : बहुत ही कम लोग रह सकते हैं। जो सहज समाधि में रहते हैं, वही भगवान कहलाते हैं। प्रश्नकर्ता : मानव का अंतिम ध्येय तो यही है न? दादाश्री : खुद की गलत मान्यताएँ छोड़ देना ही अंतिम ध्येय है। गलत मान्यताओं की वजह से असहज हो गया है यह। गलत मान्यताएँ छूट जाएँ तो सहज ही है। 'करो,' वहाँ आत्मज्ञान नहीं है अभी एक भाई ने बात की थी, 'करो, करो,' कह रहे थे न! वह आत्मा के लिए या आत्मज्ञान के लिए कह रहे हैं कि 'करो'! अर्थात् ये जो कहते हैं न कि 'करो', लेकिन उससे तो आत्मज्ञान करोड़ों जन्म तक भी प्राप्त नहीं होगा। आत्मज्ञान सहज है, उसमें सहज स्थिति उत्पन्न होती है अर्थात् 'सहज' का और 'करो' का, इन दोनों के बीच में आदि काल से बैर है ! बैर है या नहीं?! सहज अवस्था करने से प्राप्त नहीं होती। वह तो जब यों ज्ञानीपुरुष की कृपा बरसे कि सहज हो जाता है तो काम हो गया! जो लोग ऐसा कहते हैं कि ऐसा करो और वैसा करो, वे सहज अवस्था से विरुद्ध करवाते हैं। संसार में कर्म बंधन की स्थिति ही वह है। बल्कि उससे ज़्यादा कर्म बंधन होते हैं। संसार में कुछ भी करना, वह आत्म स्वभाव के विरुद्ध है इसलिए वह आत्मा का विरोधी है। अब करनेवाले मन में खुश होते हैं कि मैंने ऐसा किया और वैसा किया। अरे भटक मरने के लिए किया है!