________________ 446 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) अहंकारी है। यह हम से हो सकता है, ऐसा कहनेवाला भी अहंकारी है। यह सारा अहंकार ही है। अर्थात् आप में यह पूर्ण प्रकट हो गया है, इसलिए सभी क्रियाएँ हो सकती हैं। संसार की सभी क्रियाएँ हो सकती हैं और आत्मा की सर्वस्व क्रियाएँ, दोनों अपनी-अपनी क्रिया में रहते हैं। वीतरागता, संपूर्ण वीतरागता में रहकर! ऐसा है यह अक्रम विज्ञान !!! शरीर स्वभाव से इफेक्टिव जो पर परिणाम हैं, जो कि डिस्चार्ज रूपी हैं, उनमें वीतरागता रखने की ज़रूरत है। दूसरा कोई उपाय ही नहीं है। वह तो महावीर भगवान को जब चरवाहे ने बरु ठोके थे न, तो सिर्फ वीतरागता रखने की ही ज़रूरत थी और बरु खींच लिए उन्होंने, उस घड़ी भी वीतरागता ही। फिर चाहे देह का कुछ भी हुआ, देह से आह निकली होगी, उसे लोगों ने उल्टा माना लेकिन ज्ञानी की देह तो हमेशा ही शिकायत करती है, रोती है, सभी कुछ करती है। ज्ञानी की देह यदि यों स्थिर हो जाए तब तो वह ज्ञानी नहीं है। प्रश्नकर्ता : सभी लोग तो ऐसा ही मानते हैं कि ज्ञानी को ज़रा ऐसा कहें तो हिलेंगे नहीं, टस से मस नहीं होंगे। दादाश्री : लोगों को लौकिक ज्ञान है। जगत् लौकिक से बाहर निकला ही नहीं है। जलकर मरने लगे, तब भी अगर ऐसे ही बैठा रहे तो लोग उसे ज्ञानी कहेंगे लेकिन ज्ञानी का तो पता चल जाता है कि 'ये ज्ञानी हैं,' तुरंत हिल उठते हैं। यों पूरे हिल उठते हैं और अज्ञानी नहीं हिलता क्योंकि अज्ञानी तय करता है कि मुझे हिलना ही नहीं है। ज्ञानी में अहंकार नहीं होता और वे सहज होते हैं। सहज उसे कहते हैं कि जैसा शरीर का स्वभाव है न, वैसे ही विचलित होता रहता है ! शरीर ऊँचा-नीचा हो तो वह सहज है और आत्मा के परपरिणाम नहीं हों, वह सहज है। सहज आत्मा अर्थात् स्व परिणाम और शरीर ऊँचा-नीचा होने लगे तो वह अपने स्वभाव से ही हिल उठता है ऐसे। माचिस की तीली को जलाकर डाल दें तो फिर पीछे का सिरा ऊँचा हो जाता है, वह क्या है? वह सहज परिणाम है। देह के सभी परिणाम बदलते