________________ 444 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) दादाश्री : ‘इट हैपन्स' में जितनी ज़रूरत है, उतना डिस्चार्ज अहंकार रहता है। __ तब वह कहलाती है समझ डिस्चार्ज अहंकार के खत्म हो जाने के बाद देह जो भी क्रिया करती है, वह सहज क्रिया कहलाती है, बिल्कुल सहज। उस घड़ी आत्मा भी सहज और यह भी सहज। दोनों जुदा और सहज भी दोनों ही। अर्थात् जब यह डिस्चार्ज अहंकार भी खत्म हो जाता है, तब सहज आता है। सहजरूप से। जैसे भूख लगाने के लिए हमें कुछ करना नहीं पड़ता, उतनी ही आसानी से होता है। प्रश्नकर्ता : जो कुछ भी सहज क्रिया हो रही हो, उससे कोई कर्म बंधन नहीं होता? दादाश्री : हो ही नहीं सकता न! आपको डिस्चार्ज में भी कर्म बंधन नहीं होता। डिस्चार्ज अहंकार कर्म नहीं बाँध सकता। यह अहंकार कर्म छुड़वाने के लिए है। वह अहंकार बंधे हुए कर्मों को छोड़ने के लिए है। जो बंधा हुआ है उसे छुड़वाने के लिए कोई चाहिए तो सही न? अतः छोड़ने का अहंकार है वह। शुद्ध व्यवहार कब? अब व्यवहार की शुद्धता कब है कि तन्मयाकार न हो, चिपके ही नहीं। स्पर्श करे लेकिन चिपके नहीं, तब शुद्ध कहलाता है नहीं तो शुद्ध होने के कारण उत्पन्न होंगे। वह कुछ समय पश्चात शुद्ध हो जाएगा। शुद्ध अर्थात् सहज, सहज व्यवहार। और जिसका व्यवहार सहज है उसका आत्मा सहज आत्मा कहलाता है। सहजात्म स्वरूप अर्थात् क्या कि जिसका व्यवहार सहज है, ऐसे आत्म स्वरूप को सहज आत्मा कहा जाता है। फिर क्रमिक में उसका अर्थ ज़रा कच्चा रहता है क्योंकि उसमें जो ज्ञानी हैं, वे जितने भाग में सहज हुए हैं, उतने ही होंगे न! बाकी का जितना अशुद्ध रहे, वहाँ पर तो असहज रहे न! और यहाँ तो सहज हो ही जाता है।