________________ 442 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) दादाश्री : बुद्धि भी दखल करती है, सभी दखल करते हैं। अहंकारबुद्धि-चित्त और मन, ये सभी दखलवाले ही हैं न? लेकिन मूल गुनहगार माना जाता है अहंकार। क्योंकि उसके खुद के हस्ताक्षर हैं। प्रश्नकर्ता : मन का स्वभाव तो, वह विचार करके चला जाता है? दादाश्री : नहीं, न भी जाए। दखल करके ही छोड़ता है। प्रश्नकर्ता : लेकिन वह अहंकार जितना फॉर्सवाला नहीं है न! यानी कि मन हस्ताक्षर करनेवाले जितना फॉर्सवाला नहीं है न? दादाश्री : अवश्य है, बहुत ही! मन एक जिद पकड़ ले तो सुबह तक चले। यानी कि कोई भी सीधा नहीं है। इसलिए खुद को ही सीधा होना पड़ेगा। वे तो सीधे ही थे, उन्हें हमने बिगाड़ा है इसलिए अगर हम सीधे हो जाएँगे तो वे सुधरेंगे। प्रश्नकर्ता : इसमें तो प्रज्ञा जितनी चेतावनी दे, उतना ही हम सावधान हो सकते हैं न? दादाश्री : प्रज्ञा तो बहुत चेतावनी देने को तैयार है। वह चेतावनी दे और उसे माने नहीं तो वह बंद हो जाती है। प्रश्नकर्ता : उदाहरण के तौर पर हम अगर उसका सभी कुछ मानें तो वह सभी चेतावनियाँ देगी? दादाश्री : उससे भान रहता है सारा। हाँ, सभी चेतावनियाँ देती है। हम उसके प्रति सिन्सिअर रहें तो वे सभी चितावनियाँ देती है। उसे कुछ भी करके मोक्ष में ले जाना है इसलिए अगर उसकी खुद की इच्छा के अनुसार हो रहा हो, उसकी भावना के अनुसार हो रहा हो तो तैयार ही रहती है। इसमें 'हम,' कौन है? प्रश्नकर्ता : ‘हमें' दखल करने की आदत है, इसमें 'हम' कौन है? दादाश्री : वह हम ही हैं अभी भी। 'हम' दो प्रकार से रहा हैं अब। व्यवहार से इस तरफ रहे हैं और वास्तव में दूसरी तरफ हैं। जितना 'देखें'