________________ 436 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) लोग भी कहते हैं, 'त्यागे सो आगे।' ऐसा कहते हैं कि आपको अगर देवगति का सुख भोगना हो तो यहाँ पर 'एक स्त्री को छोड़ो।' अतः हमें तो त्याग और ग्रहण किसी की भी ज़रूरत नहीं है। निकाल की ज़रूरत है। सभी संयोग वियोगी स्वभाव के हैं और संयोग अपनी दखलंदाजी से खड़े हो गए हैं। यों दखलंदाजी नहीं की होती तो संयोग खड़े ही नहीं होते अभी तक। जब तक ज्ञान नहीं मिला था, तब तक दखलंदाजी करते ही रहते थे और मन में गुमान लेकर घूमते थे कि मैं भगवान के धर्म का पालन करता हूँ! प्रश्नकर्ता : संयोगों में से सहज में गया इसलिए फिर छूट गया न, फिर सहजता में ही आ गया न? दादाश्री : सहजता में रहने से संयोग छूट जाते हैं। खुद सहजता में गया तो संयोग छूट गए। संयोगों में से खुद सहजता में जा सकता है और सहजता में जाने के बाद संयोग छूट जाते हैं। प्रश्नकर्ता : अब संयोग भी सहजता में आते हैं? दादाश्री : नहीं, संयोगों में से सहजता में जाता है। संयोग सहज नहीं हो सकते न! सहज अलग चीज़ है और संयोग अलग चीज़ है। जहाँ नहीं हैं राग-द्वेष, वहाँ सहजता प्रश्नकर्ता : अब ज्ञान के बाद तो आत्मा खुद के स्वभाव में ही आ जाता है न? दादाश्री : और पुद्गल अपने स्वभाव में आ गया। पुद्गल नियम में आ गया क्योंकि जो दखलंदाजी करनेवाला था, वह हट गया। पुद्गल हमेशा नियमबद्ध ही होता है लेकिन यदि दखलंदाजी करनेवाला नहीं हो तो। इस इन्जन में अंदर सब कोयले वगैरह भरकर बाकी सब कम्पलीट करके और ड्राइवर नहीं हो तो बस चलते रहने का उसका स्वभाव ही है। अंदर दखलंदाजी करनेवाला वह बैठा हुआ हो तो बस को खड़ा रखता है, फिर वापस चलाता है। पुद्गल में यदि डखोडखल नहीं की जाए न, तो वह शुद्ध