________________ 432 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) यह दखलंदाज़ी हो गई। हमसे ऐसा नहीं होता। हम वे शब्द तुरंत वापस ले लेते हैं। हम जानते हैं कि जो होना है उसमें उसका भी चलनेवाला नहीं है और मेरा भी चलनेवाला नहीं है। बेकार ही क्यों उसमें दखल करें! प्रश्नकर्ता : तो सुबह उठकर चरणविधि में करते हैं न हम, तो इसमें वह चीज़ हेल्प करती है? वह हमें सामनेवाले को टोकने से रोकती है? दादाश्री : इसे समझ लें तो हेल्पफुल रहेगी! भरा हुआ माल तो निकलेगा ही प्रश्नकर्ता : इस संसार में डखोडखल (दखलंदाजी) किए बगैर क्यों नहीं रहा जा सकता? दादाश्री : वह तो ऐसा है कि उसकी प्रेक्टिस है। प्रेक्टिस बंद करनी पड़ेगी कि 'अब डखोडखल कभी भी नहीं हो,' ऐसी चाबी घुमाते रहें तो फिर दूसरा कोई थोड़ा-बहुत माल होगा, तो उसके निकल जाने के बाद बंद हो जाएगी। प्रश्नकर्ता : क्योंकि यदि हमें सहज रहना हो और देखते रहना हो तो डखोडखल बिल्कुल भी काम की नहीं है। दादाश्री : वह तो पहले का भरा हुआ माल निकले बगैर रहेगा नहीं। उसे हम देखें तो सहज ही हैं। प्रकृति सहज हो जाएगी, दोनों सहज हो जाएँगे तब हल आ जाएगा लेकिन अभी तो एक भी सहज हो जाए तो बहुत हो गया। भरा हुआ माल तो फूटे बगैर रहेगा ही नहीं न! भरा हुआ माल नापसंद हो फिर भी निकलता ही रहता है। प्रश्नकर्ता : पुरानी आदतें और स्वभाव पड़े हुए हैं, अब वह तो प्रकृति है। आप ज्ञान देते हैं तब आत्मा और प्रकृति, दोनों को अलग कर देते हैं। अगर हम शुद्धात्मा स्वरूप में रहें, खुद के सहज स्वरूप में, तो उसके सामने प्रकृति भी बिल्कुल सहज हो जानी चाहिए न? दादाश्री : आत्मा तो सहज ही है। आप जितने सहज हुए उतनी ही प्रकृति सहज हुई कही जाएगी।