________________
बरसों पुराने प्राकृतिक स्वभाव को किस तरह बदला जा सकता है? खुद की प्रकृति की भूलों को खुद ‘जाने' तो बहुत हो गया! वही बड़ा पुरुषार्थ है और 'देखने' से ही दोष चले जाते हैं। अन्य कोई उपाय नहीं है।
हर कोई अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करता रहता है, उसमें किसकी गलतियाँ निकालनी? सामनेवाले को कर्ता देखा, उसकी गलती निकाली तभी से नया संसार खड़ा हो गया !
किसी की प्रकृति तेज़ होती है, तो किसी की शांत। शांत हो उसमें उसकी कोई बहादुरी नहीं है। उसकी प्रकृति ही ऐसी है !
बिफरी हुई प्रकृति शांत हो जाए तो उसकी शक्ति खूब बढ़ जाती है। प्रकृति भी वीतराग है और आत्मा भी वीतराग है। दोनों में फर्क नहीं है। यह तो बीच में व्यवहार आत्मा की दखल है इसलिए उससे प्रकृति में रिएक्शन आते हैं।
यदि सामनेवाला का दोष दिखाई देता है, तो उसमें अपना ही दोष
दादाश्री अस्सी साल की उम्र में भी रोज़ एक घंटा पद्मासन लगाकर बैठते थे। उससे इन्द्रियों की शक्तियाँ खूब बनी रहती हैं। दादाश्री कहते हैं 'मैंने जिंदगी में कभी भी प्रकृति को भला-बुरा नहीं कहा है, अपमानित नहीं किया है।' प्रकृति मिश्रचेतन है, इस वजह से ऐसा करने से उसके प्रतिस्पंदनों का असर खुद पर ही पड़ता है!
खुद की प्रकृति और सामनेवाली प्रकृति के साथ एडजस्ट करने के लिए सामनेवाले को शुद्धात्मा के रूप में ही देखना है। अरे, बाघ और सिंह को भी जितने समय तक हम शुद्धात्मा के रूप में देखेंगे तो वे अपना पाशवी धर्म भूल जाएँगे!
परम पूज्य दादाश्री कहते हैं, 'जगत् असरवाला है। जब हम आपके लिए विधियाँ करते हैं तब ज़बरदस्त असर रख देते हैं, विटामिन रख देते हैं। जिससे अंदर उतनी ही शक्तियाँ उत्पन्न होती हैं।'
21