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आदत और प्रकृति में क्या फर्क है? बार-बार चाय माँगने से उसकी आदत पड़ जाती है। पहले आदत डालता है और फिर डल जाती है। जब डाल रहे होते हों, तब आदत छूट सकती है लेकिन पड़ी हुई आदत नहीं छूटती।
जैसा प्रकृति का स्वभाव है, वह हमेशा वैसी ही निकलती है ! चलने का जैसा अंदाज़ होता है, वह अस्सी साल की उम्र में भी नहीं बदलता। डिस्चार्ज कैसे बदल सकता है?
जिनकी प्रकृति नियमित हो, वह आत्मा को कोई हेल्प नहीं करती लेकिन वह व्यवहार में हेल्प करती है। खाने-पीने में, बोलने-चलने में, कुदरती हाजत वगैरह सभी कुछ उसे जैसे नियम में सेट करना हो, वैसे सेट कर पाता है।
व्यवहार में पुद्गल को ब्रेक मत मारो और आत्मा को हेन्डल मारो। 'काम करते जाओ' कहने से ऑब्स्ट्रक्शन नहीं आएँगे। 'व्यवस्थित है', 'होगा', ऐसा कहोगे तो काम में ऑब्स्ट्रक्शन आएँगे।
अक्रम मार्ग में डिसीप्लिन में नहीं आना है। जैसा माल भरा हुआ है, वह निकलता ही रहेगा। अक्रम मार्ग में तो मात्र पाँच आज्ञा का पालन करने की ही शर्त है और कुछ भी नहीं। पाँच आज्ञा का पालन करने में कौन से ब्रेक लगते हैं? अनंत जन्मों से जीवन आज्ञा के विरुद्ध ही था। अतः आज्ञा के लिए जो ब्रेक दबाए हुए हैं, उन्हें उठाया ही नहीं है। 'व्यवहार में ऐसा होना ही चाहिए, ऐसा होना ही नहीं चाहिए' वह सब वांधा - वचका (आपत्ति उठाते हैं और बुरा लग जाता है) है। उसी से आज्ञा पर ब्रेक लग जाता है! ब्रेक मन से नहीं है, वाणी से लग जाते हैं।
__ [१.४] प्रकृति को देखो निर्दोष प्रकृति संजोगाधीन बन जाती है, जबकि आत्मा भ्रांति से मालिक बन जाता है और जब वह छूटती है तब आत्मा मालिक नहीं रहता। इसमें वापस भ्रांति से आत्मा को दोषित माना जाता है ! बावड़ी में बोलो कि 'तू चोर है' तो बावड़ी वापस वही बोलेगी! प्रतिस्पंदन है यह प्रकृति। यह किसकी कृति है? कौन है दोषित?
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