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पिछले जन्म में जो कारण प्रकृति बनी, वह इस जन्म में कार्य प्रकृति में परिणामित होती है। अहंकार की वजह से नई कारण प्रकृति बनती ही रहती है। मनुष्य आंतरिक प्रकृति लेकर आया है, उसी के आधार पर अभी उसे बाह्य प्रकृति में सबकुछ मिलता है। वर्ना तो कुछ मिलता ही नहीं!
आत्मा राग-द्वेष रहित है। स्थूल प्रकृति राग-द्वेष रहित ही है, पूरणगलन (चार्ज होना, भरना-डिस्चार्ज होना, खाली होना) स्वभावी है। रागद्वेष कौन करता है? अहंकार! प्रकृति को सर्दी-गर्मी लगना, वह स्वभाविक है, लेकिन तब जो राग-द्वेष होते हैं, वे विभाविक हैं। अहंकार वह सब करता है।
प्रकृति किसके ताबे में है? अज्ञानी की प्रकृति अहंकार के ताबे में है और आत्मज्ञान प्राप्त लोगों की प्रकृति, 'व्यवस्थित के ताबे में!'
'व्यवस्थित' और प्रकृति में क्या फर्क है? 'व्यवस्थित' कार्य करता है और प्रकृति का विलय होता जाता है। प्रकृति को उत्पन्न करने में व्यवस्थित नहीं है, वहाँ पर अहंकार है, कर्तापन से होता है। प्रकृति का डिस्चार्ज होना, वह 'व्यवस्थित' है। साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स है। अक्रम ज्ञान मिलने के बाद अहंकार फ्रेक्चर हो जाता है। इसलिए नई प्रकृति बनना बिल्कुल बंद हो जाता है। फिर जो प्रकृति इफेक्ट के रूप में है, उसी को 'व्यवस्थित' कहा जाता है। जो प्रकृति कॉज़ सहित हो, उसे व्यवस्थित नहीं कहा जा सकता।
संक्षेप में, प्रकृति अर्थात् गत जन्म का भरा हुआ माल! [ १.३] प्रकृति जैसे बनी है, उसी अनुसार खुलती है
आत्मा का ज्ञान होने के बाद आसक्ति का क्या है? प्रकृति को आसक्ति होती है और पुरुष उसका ज्ञाता-दृष्टा रहता है। दोनों अलग हो गए हैं और अपने-अपने स्वभाव में आ गए हैं।
प्रकृति को खपाना अर्थात् क्या? अपनी प्रकृति सामनेवाले को अनुकूल आए, ऐसा करके समभाव से निकाल (निपटारा) करना।
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