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क्रमिक मार्ग में तो कपट वगैरह कुछ भी नहीं चलता जबकि अक्रम में तो कपट को भी आत्मभाव में रहकर जुदा 'देखने' को कहा गया है!
खुद संपूर्णतः निर्दोष हो जाए तो सामनेवाला निर्दोष दिखाई देगा, वर्ना नहीं। दादाश्री को पूरा जगत् निर्दोष दिखाई देता है और 'अंबालाल' की प्रतीति में ऐसा है ज़रूर कि जगत् निर्दोष है, लेकिन व्यवहार में कभी-कभी महात्माओं की गलतियाँ निकाल भी देते हैं ! लेकिन तुरंत उसका प्रतिक्रमण करके धो देते हैं। ज्ञानी स्व और पर की प्रकृति का निरीक्षण करते हैं, दोष नहीं निकालते।
__ महात्मा खुद के बच्चों को आत्मा के रूप में निर्दोष देखते ज़रूर हैं लेकिन देह से दोषित है ऐसा करके उन्हें डाँटते हैं, अंदर ऐसा भाव रहता है कि बच्चे को सुधारूँ'। जबकि दादाश्री कहते हैं, 'हम दूसरों की प्रकृति को देखते ही रहते हैं, उसे सुधारते नहीं हैं।' लेकिन जो बिल्कुल नज़दीक रह रहे हों, नीरूबहन जैसे, उन्हें सुधारने का ज़रा भाव रहता है, इसलिए कभी उनकी गलतियाँ निकाल देते हैं लेकिन पूर्ण वीतराग को तो ऐसी ज़रूरत ही नहीं रहती।
संसार में तो बाप 'खुद के' सौ रुपये खोकर भी बच्चे को सुधारने जाता है। सामनेवाला दोषित दिखाई देता है तो इतना तय है कि द्वेष है। उस दोष को निकालना तो पड़ेगा ही न!
बुद्धि सामनेवाले के दोष बताती है इसलिए उसे पीहर भेज देना है! सामनेवाले को दोषित नहीं देखना है, जानना नहीं है और मानना भी नहीं है। मात्र निर्दोष ही देखना और जानना है!
अपनी फाइल नं-१ सामनेवाले को दोषित देख रही हो तो सूक्ष्म दृष्टि से तो फाइल नं-१ भी निर्दोष ही है। उसे यों ही टोक देना। बाकी सामनेवाला भी निर्दोष और फाइल नं-१ भी निर्दोष है। फाइल नं-१ को डाँटना, समझाना, प्रतिक्रमण करवाना और निबेड़ा लाना लेकिन अंदर ऐसा जानना कि वह भी निर्दोष ही है!
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