________________ 350 आप्तवाणी-७ दख़ल की, तभी गड़बड़ हुई न! यानी हमें इतना समझना चाहिए कि, अंतराय कर्म किसलिए आते हैं? यदि जान लें तो फिर से ऐसा नहीं करेंगे न? ये सब आपकी ही डाली हुई रुकावटें हैं। जो है वह आपकी ही ज़िम्मेदारी पर किया हुआ है। खुद की ही ज़िम्मेदारी पर करना है, इसलिए समझ-बूझकर करना। प्रश्नकर्ता : ऐसा भी होता है न, कि राजा ने तो कहा कि हज़ार दे देना, लेकिन तिजोरी की खबर तो कोषाध्यक्ष को ही होती है न? दादाश्री : हाँ, लेकिन यदि राजा के हित के लिए कर रहा हो तो बात अलग है, लेकिन यह तो उसे बुरी आदत ही पड चुकी होती है। उससे देखा ही नहीं जाता। 'मुझे तो तनख़्वाह ही हज़ार रुपये मिलती है और इन लोगों को क्यों यों ही दे देते हैं?' उससे देखा नहीं जाता। 'दूसरों को क्यों दे देते हैं, मुझे दो न!' ऐसा आपके देखने में नहीं आया? प्रश्नकर्ता : यदि कोषाध्यक्ष जानता है कि तिजोरी में सौ ही रुपये हैं, तो उसका दोष है या नहीं? दादाश्री : नहीं, तब दोष नहीं है। लेकिन फिर भी उसे राजा साहब से विनती करनी चाहिए कि, 'राजा साहब, अपनी तिजोरी में कुछ नहीं है।' लेकिन यह तो, होते हैं फिर भी अंतराय डालता है। घर में यदि बच्चा कुछ दे रहा हो, फिर भी आप मना कर देते हो कि, 'नहीं देने हैं।' तो उस बच्चे को अंतराय कर्म नहीं है, लेकिन आपको तो अंतराय कर्म डला। यह तो अंतराय कर्म बाधक है, नहीं तो जहाँ पर आत्मा प्राप्त हुआ हो वहाँ पर हर एक चीज़ होती है। जो जो सोची हो, वह चीज़ हाज़िर ही होती है, लेकिन यह तो सब जगह खुद ने ही अंतराय डाले हैं, उसी के कारण सब रुका हुआ है! जहाँ आत्मा हो, वहाँ पर उसकी इच्छानुसार सब तैयार ही रहता है।