________________ 348 आप्तवाणी-७ नहीं हो, कीर्ति की भीख नहीं हो, उनकी दुआ पहुँचती है। जब तक मान की भीख है, लक्ष्मी की भीख है तब तक दुआ नहीं पहुँचती। सोचने से डले हुए अंतराय... प्रश्नकर्ता : जो कार्य करते हैं उसमें विरोधी शक्ति आती है और उस कार्य को रोकती है, तो ऐसा क्यों होता है? दादाश्री : जो हमें सही कार्य करने में रुकावट डालता है, उसे अंतराय कर्म कहते हैं। ऐसा है, अगर बाग़ में जाते-जाते ऊब जाए न, तो एक दिन मैं कह देता हूँ कि, 'इस बाग़ में कभी भी आने जैसा है ही नहीं।' और हमें यदि वहाँ पर जाना हो न, तो हमारा ही किया हुआ अतंराय वापस सामने आएगा, तो उस बाग़ में नहीं जा पाएँगे। ये जितने भी अंतराय हैं, वे सब अपने ही खड़े किए हुए हैं। बीच में और किसी की दख़ल नहीं है। किसी जीव में किसी जीव की दख़ल है ही नहीं, खुद की ही दख़लों से यह सब खड़ा हो गया है। हम बोलें हो कि, 'इस बाग़ में आने जैसा है ही नहीं।' अब फिर वापस वहाँ जाना हो, उस दिन फिर हमारा जाने का मन ही नहीं करेगा, बाग़ के फाटक तक जाकर वापस आना पड़ेगा, इसी को कहते हैं अंतराय कर्म! क्योंकि दख़ल की कि अंतराय डला। बांद्रा की खाड़ी(मुंबई में) के पास खड़ा रहे तो दुर्गध आती रहती है, कितना ही बाग़ में जाना हो फिर भी बाग़ में जा नहीं पाता, उसका क्या कारण है? कि खुद ने ही अतंराय डाले हैं, ये भोगने के अंतराय डाले हैं। वे अंतराय टूटें, तो काम हो जाए। लेकिन अंतराय टूटेंगे किस तरह? 'जाना है, लेकिन क्यों नहीं जा पाता' ऐसे ही सोचता रहे न, तो सभी अंतराय तोड़ देगा। क्योंकि विचारों से अंतराय पड़े है और विचार ही अंतराय को तोड़ते हैं। 'जाएँगे, नहीं जाएँगे तो क्या चला जाएगा?' ऐसे विचारों से अंतराय