________________ 344 आप्तवाणी-७ न्याय कहें या अन्याय? कोई कहेगा कि, 'आप न्याय करवाकर रुपये वापस ले लीजिए।' मैंने कहा कि, 'नहीं, यह तो अब पहचान गए कि ऐसी क्वॉलिटी भी होती है। इसलिए इस बिरादरी से तो अब दूर, बहुत दूर ही रहो और इनके साथ यदि सही-गलत का न्याय करेंगे तो मामला तलवारें उठने तक पहुँच जाएगा।' यदि वसूली करेंगे तो दोबारा माँगेंगे न? ___ लोगों को पता चला कि मेरे पास पैसे आए हैं, इसलिए मेरे पास लोग पैसे माँगने आए। उसके बाद 1942 से 1944 तक मैं सभी को पैसे देता ही रहा। फिर 1945 में मैंने नक्की किया कि अब मुझे तो मोक्ष की तरफ जाना है। इन लोगों के साथ अब मेरा कब तक चलेगा? इसलिए ऐसा नक्की करो कि इस पैसे की वसूली करेंगे तो फिर वापस रुपये लेने आएँगे न, तो फिर व्यवहार चलता ही रहेगा, इसके बजाय वसूली करना बंद कर दो तो व्यवहार ही बंद हो जाए। वसूली करेंगे तो पाँच हज़ार देकर वापस दस हज़ार लेने आएगा। इसके बजाय ये पाँच हज़ार उसके पास रहेंगे तो उसके मन में ऐसा लगेगा कि 'अब ये न मिलें तो अच्छा।' और रास्ते में यदि मुझे देख ले न, तो वह दसरी तरफ से होकर निकल जाता था, तब मैं भी समझ जाता। यानी कि मैं छूट गया, मुझे इन सब को छोड़ना था और इन सब ने मुझे छोड़ दिया! | अब इस टोली में मैं किसलिए चला गया था? मान खाने के लिए। अंदर मान खाने का मोह था, इसलिए मान खाने के लिए इनमें चला गया था। लेकिन अब निकलूँ कैसे? लेकिन मुझे यह रास्ता मिल गया। जब-जब मेरे मन में निश्चय होता है कि अब कैसे निकलूँ? उस घड़ी मुझे सूझ पड़ जाती थी। यानी मैंने नक्की किया कि ये पैसे नहीं माँगने हैं तो रास्ता निकल आएगा तो इतना अच्छा अंत आ गया कि सभी का आना बंद हो गया। उनमें से दो-चार लोग आकर दे गए होंगे, लेकिन मैंने उनसे साफ