________________ 332 आप्तवाणी-७ साथ में टिफ़िन वगैरह कुछ नहीं ले जाते। टिफ़िन ले जाते होंगे? लेकिन वे इतना सारा खाते हैं कि हाथ से छूएँ तो पेट फूट जाए बेचारे का। वह मर जाएगा बेचारा! और फिर अपने हाथ में बदबू आएगी! तुझे यह संसार अच्छा लगता है? कैसे अच्छा लगता है यह? मैं तो यह सब देखकर ही ऊब गया! अरे, किस जगह पर सुख माना है इन लोगों ने! और कैसे मान लिया है इसे सुख? सोचा ही नहीं न! जहाँ पर कुछ हो जाता है वहाँ पर विचार ही नहीं किया! इससे संबंधित किसी प्रकार का विचार ही नहीं? तब पूरे दिन विचार पैसों में ही, कि किस तरह पैसे मिलें? नहीं तो अगर पत्नी मायके गई हो तो विचार आते रहेंगे कि आज एक चिट्ठी लिखू कि जल्दी आ जाए! बस, यही दो विचार, और कोई विचार ही नहीं! पाशवता के विचार कि कहाँ से ले लूँ और कहाँ से इकट्ठा करूँ? अरे, यह तो फ्री ऑफ कॉस्ट है, उसके लिए क्या माथापच्ची कर रहे हो? तेरा वह हिसाब तो नक्की हो चुका है। तुझे इतने पैसे मिलेंगे। यह पेशेन्ट इतने पैसे देगा, यह पेशेन्ट एक आना भी नहीं देगा। जान-बूझकर धोखा खाना, करवाए प्रगति हमें तो धोखा खाकर आगे बढ़ना है। जान-बूझकर ठगे जाने जैसी प्रगति इस जगत् में कोई भी नहीं। मनुष्य जाति पर विश्वास, वह तो बहुत बड़ी चीज़ हैं। दस लोग विश्वासघात करें तो सभी को छोड़ दें? नहीं छोड़ते। लोग तो क्या करते हैं? दो-पाँच दोस्तों ने धोखा दिया हो तो कहते हैं 'ये सभी धोखेबाज़ हैं, सभी धोखेबाज़ हैं। अरे, नहीं कहना चाहिए। यह तो अपने हिन्दुस्तान की प्रजा, यों तो टेढे दिखते हैं, लेकिन परमात्मा जैसे हैं! भले ही, संयोगों के कारण ऐसी दशा हुई है, लेकिन मेरा ज्ञान दे दूँ तो एक घंटे में कैसे हो जाते हैं! यानी परमात्मा जैसे हैं, लेकिन उन्हें संयोग नहीं मिला है।