________________ कला, जान-बूझकर ठगे जाने की (21) 329 उसके यहाँ किसी और की ज़ब्ती आई हुई थी। मैं तो थोड़ी देर बैठा, तो उसे जब्ती में कुछ बीस रुपये भरने थे, उतने रुपये भी उसके पास नहीं थे, बेचारा ऐसे आँख से पानी निकालने लगा। तब मैंने कहा कि, 'ले, बीस मैं देता हूँ,' मैं वे बीस रुपये देकर आया! जो वसूली करने गया, वह कभी बीस रुपये देकर आता होगा? ...परिणामस्वरूप कौन सी बुद्धि उत्पन्न होती है? जान-बूझकर ठगे जाने जैसा कोई परमार्थ नहीं है और पूरी जिंदगी मैं जान-बूझकर ही ठगा गया हूँ। लोग कहते हैं, 'उसका फल क्या?' तब मैंने कहा कि, 'जो जान-बूझकर ठगा जाए, उसे कौन सा पद मिलता है? दिल्ली में जो कोर्ट होती है न, सुप्रीम कोर्ट, उस सुप्रीम कोर्ट के जज को भी झिड़क दे, ऐसी बुद्धि उत्पन्न होती है।' यानी क्या? कि जज की भी भूलें निकाल सके, दिमाग़ इतना हाइक्लास पावरफुल हो जाता है। कानून में ले आए, वैसी बुद्धि उत्पन्न होती है। जो जान-बूझकर ठगे जाते हैं, जो किसी को नहीं ठगता उसका दिमाग़ बहुत हाई लेवल पर जाता है! लेकिन ऐसे जान-बूझकर कौन ठगा जाता है? ऐसा कौन सा पुण्यशाली होगा? ऐसी समझ एडोप्ट ही कैसे होगी? यह समझ देगा ही कौन? ठगना कैसे, वह समझाते हैं, लेकिन जान-बूझकर ठगे जाने के बारे में कौन समझाएगा? जान-बूझकर धोखा खाकर तो देखो यहाँ पर तो ठगे जाने जैसी कोई चीज़ है ही नहीं, लेकिन ठगे गए तो बहुत उत्तम! लेकिन उसे इसकी क़ीमत क्या मिलेगी, ऐसी समझ ही नहीं है न! ठगे जाने की क़ीमत इतनी अधिक मिलती है, लोग क्या ऐसा जानते हैं? प्रश्नकर्ता : लोग जानते ही नहीं न! दादाश्री : लेकिन हमने तो बचपन से ही ठगे जाने का