________________ 328 आप्तवाणी-७ भी सभी लोग नहीं, दो-पाँच लोग ही, क्योंकि उन्हें एन्करेजमेन्ट मिला न! फिर मैंने कहा कि, 'मेरी बात ज़रा स्थिरता से सुनो। जो मुझे ठग गया उसे यदि मैंने एक झापड़ मारी होती, तो हम तो दयालु इंसान, तो झापड़ कैसी मारेंगे, यह आपको समझ में आता है?' उस खुलासा माँगनेवाले से मैंने पूछा तब उसने कहा, 'कैसी मारेंगे?' तब मैंने कहा, 'धीरे से मारेंगे।' उससे और ज़्यादा एन्करेजमेन्ट मिलेगा कि 'ओहोहो, अरे बहुत हुआ तो इतनी ही मार पड़ेगी न? तो अब यही करेंगे।' यानी दयालु इंसान छोड़ दे, वही ठीक है। उसे फिर इस तरह लोगों को ठगते-ठगते दूसरातीसरा स्टेशन आएगा, उसमें कोई एकाध उसे ऐसा मिल जाएगा कि जो मार-मारकर उसके परखच्चे उड़ा देगा, फिर वह जिंदगी भर के लिए ऐसा करना भूल जाएगा, उसे ठगने की आदत पड़ गई है और वह व्यक्ति उसकी वह आदत खत्म कर देगा, अच्छी तरह से सिर फोड़ देगा। आपकी समझ में आया न? खुलासा ठीक है न? लेकिन इस ज्ञान के बाद तो हमारे वे सभी संग छूट गए हैं न! यों भी 1946 के बाद वैराग्य आ गया था और 1958 में ज्ञान प्रकट हुआ! जान-बूझकर ठगे जाना, वह तो सबसे बड़ा पुण्य है! अंजाने में तो हर कोई ठगा गया है। लेकिन हमने तो पूरी जिंदगी यही काम किया है कि जान-बूझकर ठगे जाना! अच्छा बिज़नेस है न? ठगनेवाले मिलें तो समझना कि हम बहुत पुण्यशाली हैं, नहीं तो ठगनेवाला मिलता ही नहीं न! इस हिन्दुस्तान देश में क्या सभी लोग पापी हैं? अगर आप कहो कि मुझे आप ठगो, देखते हैं, तो इस जोखिमदारी में मैं कहाँ पडूं? और जान-बूझकर ठगे जाएँ ऐसी कोई कला नहीं है! लोगों को तो पसंद नहीं है न, ऐसी बात? लोगों का नियम इसके लिए मना करता है न? इसीलिए तो ठगने की आदत डालते हैं न! टिट फोर टेट ऐसा सिखाते हैं न? लेकिन क्या हमें उसे धौल लगानी चाहिए? और मैं मारूँ तो धीरे से मारूंगा। एक जगह पर वसूली करने गया था, तब