________________ कला, जान-बूझकर ठगे जाने की (21) 325 संतोष नहीं करते। आकरनेवाले तो क्याक आएँगे और तो और कौन और एक कमीज़ का कपड़ा लाओ और एक कोट का कपड़ा लाओ। क़ीमत-वीमत नहीं पूछता। मैं जानता हूँ कि अपनी जानपहचान के हैं सभी। अब दूसरा कोई व्यापारी वापस मुझे मिले तो कहेगा, 'उसकी क़ीमत देखाओ।' तब वह मुझे बता देता है कि, 'इतनी क़ीमत आप से ज़्यादा ली है।' तब मैं कहता हूँ कि, 'यह तो हम जान-बूझकर ठगे जाते हैं' मैं जानता हूँ कि यदि वह अधिक नहीं लेगा तो उसके मन में ठंडक नहीं होगी। इतने अच्छे ग्राहक आए और वे यदि ज़्यादा नहीं देंगे तो और कौन सा ग्राहक देगा? ऐसे खानदानी ग्राहक आएँगे और वे नहीं देंगे तो दूसरे किच-किच करनेवाले तो क्या देंगे? हम कभी भी किचकिच नहीं करते। अगर हमारे चरण वहाँ पढ़ें तो उस बेचारे को संतोष होना चाहिए। हमारे चरण पड़ें तो उसे संतोष होना ही चाहिए। और यदि हमारे चरण पड़ें और उसका मुँह बिगड़े कि 'कहाँ से ऐसा ग्राहक आया।' क्या कहेगा? कि, 'धोती ले गए और ऊपर से दो रुपये काटकर दिए।' अरे, पूरे रुपये दिए और ऊपर से ऐसे मुँह बिगाड़ रहा है? लेकिन देखो ऐसे किच-किच करके दो रुपये कम दिए, तो उसका मुँह बिगड़ गया न! वर्ना अठारह रुपये ज़्यादा लिए थे, वे अच्छे दिखते। यह तो सोलह ज़्यादा दे दिए और उसका अच्छा भी नहीं दिखा। एक सोने के कलश के लिए पूरा मंदिर बिगाड़ा? हम तो इस तरह जान-बूझकर ठगे जाते हैं! यह तो छोटा उदाहरण दे रहा हूँ व्यापारियों से ठगे जाने का। लेकिन हमें सभी ठगते हैं, बूटवाला भी ठग लेता है न! इनमें एकाध-दो अच्छे भी मिले हैं कि जो बिल्कुल भी नहीं ठगते। जबकि ठगनेवाले क्या समझते हैं कि ये भोले हैं। इसीलिए कविराज ने लिखा है कि, "मानी ने मान आपी, लोभिया थी छेतराय, सर्व नो अहम् पोषी, वीतराग चाली जाय।" - नवनीत अहम् को पोषण देकर वीतराग चले जाते हैं! उस बेचारे