________________ 324 आप्तवाणी-७ हूँ।' तब उन्होंने कहा कि, 'अब मैं फिर से ऐसा नहीं बोलूंगा।' मैं जान जाता हूँ कि इस बेचारे की मति ऐसी है, इसकी दानत ऐसी है। इसलिए इसे जाने दो, लेट गो करो न! हम तो कषाय से मुक्त होने आए हैं। कषाय नहीं हों इसलिए हम ठगे जाते हैं। यानी फिर दोबारा भी ठगे जाते हैं। जान-बूझकर ठगे जाने में मज़ा है या नहीं? जान-बूझकर ठगे जानेवाले कम होते हैं न? प्रश्नकर्ता : होते ही नहीं। दादाश्री : बचपन से मेरा 'प्रिन्सिपल' यह था कि जानबूझकर ठगे जाना है। वर्ना, मुझे मूर्ख बना जाए और ठग ले उस बात में माल नहीं है। ऐसे जान-बूझकर ठगे जाने से क्या हुआ? ब्रेन टॉप पर पहुँच गया, जैसा बड़े-बड़े जजों का ब्रेन काम नहीं करे, वैसा काम करने लगा। जो जज होते हैं, वे भी जान-बूझकर ठगे गए ही होते हैं। और जान-बूझकर ठगे जाने से ब्रेन टॉप पर पहुँच जाता है। लेकिन देखना, तू ऐसा प्रयोग मत करना। तूने तो ज्ञान लिया है न? वह तो यदि किसी ने ज्ञान नहीं लिया हो तब ऐसा प्रयोग करना चाहिए। जान-बूझकर ठगे जाना है, लेकिन किसके साथ ऐसे जानबूझकर ठगे जाना चाहिए? जिसके साथ रोज़ का ही व्यवहार हो, उसके साथ। और बाहर भी किसी से ठगे जाना, लेकिन जानबूझकर। वह समझे कि मैंने इन्हें ठग दिया और हम समझें कि यह मूर्ख बना। खरीददारी, लेकिन ठगे जाकर प्रश्नकर्ता : आप जान-बूझकर ठगे गए हों, ऐसा कोई उदाहरण दीजिए न! दादाश्री : अरे, बहुत सारी बातों में हम जान-बूझकर ठगे गए है। इन व्यापारियों ने भी मुझे ठगा है! 'आओ आओ, पधारिए पधारिए,' करके ठग लेते हैं। मैं कहूँ कि भाई एक धोती लाओ