________________ 318 आप्तवाणी-७ दादाश्री : नहीं। क्योंकि उसके बिना नीति का पालन किया ही नहीं जा सकता न! कैफ़ में ही नीति का पालन करता है और उसका कैफ़ निरंतर बढ़ता ही जाता है! इसके बावजूद वह कैफ़ में रहकर भी, लेकिन नीति का पालन करता है, इसलिए अच्छा पुण्य बंधन होता है और अच्छी गति मिलती है। उसे अच्छे लोग, संत वगैरह मिल जाते हैं। आगे जाकर ज्ञानी भी मिल जाते हैं। अर्थात् वह गलत नहीं है। वह गलत है ऐसा मुझे कहना भी नहीं है। लेकिन भगवान के वहाँ तो अहंकार बाधक है। अब वह, जो नियम से अनीति का पालन करता है, उसमें अहंकार नहीं होता। और पाँच हज़ार आने पर भी वह लेता नहीं है, तो वह क्या प्रामाणिकता कहलाती है? नहीं। जबकि जो नियम से रिश्वत लेता है, वह तो कोई ऐसी-वैसी प्रामाणिकता नहीं है! क्योंकि एक व्यक्ति यदि उपवास करे तब तो वह भूखा रह सकता है, लेकिन अगर उसे कहा हो कि आज तीन ही निवाले खाने हैं, चौथा निवाला नहीं खाना है। तो इंसान से ऐसा कंट्रोल रह ही नहीं सकता, खाने के बाद रुक ही नहीं सकता। अपने आप ही जब पूरा हो तभी रुकता है! यह बात आपको समझ में आती है न? इसलिए जिसने नियमपूर्वक अनीति की उसका मोक्ष नीतिवाले से पहले होता है। क्योंकि नीतिवाले को नीति करने का कैफ़ रहता है कि 'मैंने पूरी जिंदगी नीति का पालन किया है' और वह तो ऐसा होता है कि भगवान की भी न सुने। जबकि जिसने अनीति की, उसका कैफ़ तो उतर ही चुका होता है न! उसे कैफ़ ही नहीं चढ़ता। क्योंकि उसने तो जो अनीति की, वही उसे अंदर कचोटती रहती है। और जो पाँच सौ रुपये लिए उसका भी उसे कैफ़ नहीं चढ़ता। कैफ़ तो नीतिवाले को चढ़ता है और उसे तो यों ही ज़रा छेड़ें न तो तुरंत पता चल जाएगा, फन उठाकर खड़ा रहेगा। क्योंकि उसके मन में ऐसा है कि, 'मैंने कुछ किया है, पूरी जिंदगी मैंने नीति का पालन किया है!'