________________ 316 आप्तवाणी-७ तू यह अनीति कर रहा है, लेकिन नियम से कर रहा है। नियम में रहकर अनीति की जा सकती है और नियम में रहकर अनीति करे तो मुझे आपत्ति नहीं है। यह नियम ही तुझे मोक्ष में ले जाएगा और इसकी जोखिमदारी तेरी नहीं है, लेकिन नियम से करेगा तो बहुत हुआ। अनीति भी नियम से करे न, तो बहुत बड़ी चीज़ है, अनीति का नियम कभी भी नहीं रह सकता। क्योंकि अनीति करने गया तो वह बढ़ता ही जाता है और वह अनीति नियम से करे तो उसका कल्याण हो जाएगा। यह हमारा गूढ वाक्य है। यह वाक्य यदि समझ में आ जाए तो काम हो जाएगा न! भगवान भी खुश हो जाएँगे कि इसे दूसरे की थाली में से खाना है फिर भी, सीमा में खा रहा है! नहीं तो जब दूसरे की थाली में से खाता है, वहाँ फिर सीमा रहती ही नहीं है न! आपकी समझ में आता है न कि अनीति का भी नियम रख। मैं क्या कहता हूँ कि, 'तुझे रिश्वत नहीं लेनी है और तुझे पाँच सौ कम पड़ रहे हैं, तो तू कब तक कुढ़ता रहेगा?' लोग दोस्तों से रुपये उधार लेते हैं, उससे अधिक जोखिम मोल लेते हैं। इसलिए मैं उसे समझाता हूँ कि, 'भाई, तू अनीति कर, लेकिन नियम से कर।' अब जो नियम से अनीति करे वह नीतिवान से भी श्रेष्ठ है। क्योंकि नीतिवान के मन में तो रोग घुस जाता है कि, 'मैं कुछ हूँ,' जबकि इसके मन में रोग भी नहीं घुसता न! ऐसा कोई सिखाएगा ही नहीं न! नियम से अनीति करना तो बहुत बड़ा कार्य है। यदि अनीति भी नियम से है तो उसका मोक्ष होगा, लेकिन जो अनीति नहीं करता, जो बिल्कुल भी रिश्वत नहीं लेता, उसका मोक्ष कैसे हो पाएगा? क्योंकि जो रिश्वत नहीं लेता है, उसे 'मैं रिश्वत नहीं लेता' ऐसा कैफ़ चढ़ जाता है। भगवान भी उसे निकाल