________________ 478 आप्तवाणी-२ और यह पर-रमणता, ऐसा कुछ भान ही नहीं है। दो प्रकार के लोग हैं : एक अवस्थाओं में पड़े हुए हैं वे फिर साधु हों या सन्यासी हों, आचार्य हों या सूरि हों, सभी अवस्थाओं में पड़े हुए हैं और दूसरे प्रकार के लोग वे हैं जो स्वरूप में पड़े हुए हैं। 'दादा' ने जिन्हें 'स्वरूप का ज्ञान' दिया, उसके बाद से वे खुद के स्वरूप में ही पड़े हुए हैं। अवस्थाएँ विनाशी हैं, विनाशी हैं यानी एकदम से पंद्रह मिनट में विनाश हो जाएँ, ऐसी नहीं हैं। कोई तीन घंटे चलती हैं, कोई चार घंटे चलती हैं। जवानी दस साल या पंद्रह साल तक चलती है, बुढ़ापा बीस साल तक चलता है। उसमें बचपन, जवानी और बुढ़ापा ये तीन अवस्थाएँ बड़ी हैं और बचपन में भी कितनी अवस्थाएँ उत्पन्न होती हैं। जब दो साल का छोटा बच्चा था-तब नंगा फिरता था, कपड़े नहीं पहनता था तो वह चल जाता था। पाँच साल का हुआ तो कपड़े वगैरह पहनाते हैं, तब इतने खिलौने माँगता है। और ग्यारह साल का हो जाए तब पाँच साल के बच्चे के खिलौने दें तो नहीं लेता। 'मुझे तो बैट और बॉल ही चाहिए' ऐसा कहेगा। 'अरे, खिलौने क्यों बदले?' तब कहेगा, 'मेरी अवस्था बदल गई है, मैं बड़ा नहीं हो गया?' अवस्था बदलने से वह बड़ा हो गया! ऐसे करते-करते ठेठ तक खिलौनों से खेलता है। जो खिलौनों से खेलता है वह अवस्था में मुकाम करता है और जो आत्मा की रमणता करता है वह आत्मा में मुकाम करता है। अवस्था में मुकाम करे, तो अस्वस्थ रहता है, आकुल-व्याकुल रहता है और आत्मा में रमणता करे तो स्वस्थ, निराकुल रहता है! 'ज्ञानीपुरुष' आपको अवस्था की रमणता में से उठाकर आत्मरमणता में बैठा देते हैं। फिर इन अनंत जन्मों की अवस्थाओं की रमणता का एन्ड आ जाता है और निरंतर की आत्मरमणता हमेशा के लिए उत्पन्न हो जाती है। 'ज्ञानीपुरुष' क्या नहीं कर सकते? आत्मा की रमणता होने के बाद कोई काम बाकी नहीं बचता, वर्ना तब तक खिलौनों से ही खेलना पड़ता है न? क्योंकि तब तक चित्त को रखे किसमें? जब तक स्वरूप का भान नहीं है तब तक चित्त को किसमें रखे? या तो अंदर रखेगा, लेकिन अंदर के स्वरूप का भान नहीं है इसलिए