________________ स्व-रमणता : पर-रमणता 477 से, स्व से खेलते हैं, स्व-रमणता करते हैं। अब ये इतनी सूक्ष्म बात समझते नहीं हैं, इसलिए पूरा दिन पुस्तक और सिर्फ पुस्तक से ही खेलते रहते हैं ! पुस्तक नहीं मिले तो चिढ़ते हैं। पूरा दिन सबके ऊपर चिढ़ते रहते हैं, 'तुझमें अक़्ल नहीं है,' सभी से ऐसा कहते हैं। यह अक्ल का बोरा आया! भगवान ने पुस्तक में साफ-साफ मना किया है कि किसी पर चिढ़ना मत, किसी को दुःख मत देना, लेकिन वही करता है। पुस्तक में क्या इस तरह चिढ़ने को कहा गया है? लेकिन यदि एक पुस्तक खो जाए न, जो पुस्तक चिढ़ने के लिए मना करती है, अगर वही पुस्तक खो जाए न, तब भी चिढ़ता रहता है! ये सभी खिलौनों से खेलते हैं, फिर यदि वे शोर मचाएँ तो उससे क्या भला होगा! करोड़ों जन्मों तक शास्त्र पढ़ता रहे, तो भी बल्कि वह तो शास्त्रों के बंधन में ही पड़ता है। संसार की रमणता में पड़ता है तो उसके बंधन में पड़ता है। इसमें से उसमें और उसमें से वापस इसमें। पुस्तकें भी खिलौने हैं। पुस्तकें आत्मा को जानने के लिए हैं, इसलिए वह हेतु गलत नहीं है, लेकिन आत्मा की रमणता ही सच्ची रमणता है, दूसरी सारी पर-रमणता है। एक साधु आए थे, उन्होंने कहा कि, 'मुझे बिल्कुल, एक भी परिग्रह नहीं है, तो मेरा मोक्ष होगा न?' हमने कहा, 'नहीं, आपका मोक्ष नहीं है। जब तक आत्मा में रमणता नहीं होती है, तब तक मोक्ष नहीं है। ये सब तो खिलौनों की रमणता में हैं, शास्त्र पढ़ें या क्रियाकांड वगैरह करें, वह सब रमणता ही है। परिग्रह बाधक नहीं है। परिग्रह भले ही कितने भी हों, लेकिन यदि खुद आत्मा की रमणता में रहे तो मोक्ष ही है! ऐसा एक तरफा नहीं बोल सकते कि अपरिग्रह से ही मोक्ष है।' तुझे यदि स्व-रमणता प्राप्त हो चुकी है तो शादी कर न 1300 रानियों से! हमें हर्ज नहीं है, तुझमें शक्ति होनी चाहिए। तुझे यदि स्व-रमणता प्राप्त हो चुकी है तो तुझे क्या परेशानी है? स्व-रमणता उत्पन्न होने के बाद किसी भी प्रकार की परेशानी स्पर्श नहीं करती। रमणता : अवस्था की और अविनाशी की इतनी सूक्ष्म बातें लोगों को समझ में नहीं आती, यह स्व-रमणता