________________ 476 आप्तवाणी-२ अब ऐसी उल्टी समझ कब तक चलेगी? वीतरागों की सही समझ से चलना तो पड़ेगा न? और फिर गाते भी हैं, 'पर-रमणता दूर करे, पररमणता दूर करे।' अरे, पर-रमणता का मतलब तू क्या समझा? तू जो यह खेल रहा है, वही पर-रमणता है! इसे तो तू किस तरह दूर कर पाएगा। कुछ लोग कहते हैं कि, 'समाजकल्याण कर रहे हैं, जैनों की बढ़ौतरी कर रहे हैं।' अरे जैन बढ़ें या घटें, उससे तुझे क्या पीड़ा है? महावीर भगवान को ऐसी चिंता नहीं थी तो तुझमें कहाँ से आ गई? तेरे गुरु के गुरु, उनके गुरु और पूरी दुनिया के गुरु, ऐसे महावीर, उन्होंने चिंता नहीं की कि जैन बढ़ें, तो तू ऐसा कहाँ से पैदा हुआ है कि जैनों को बढ़ाने में पड़ा है? तेरा चित्त चक्कर में चढ़ा है या क्या? इससे तो घर पर बच्चे बढ़ाए होते तो डज़न या पाँच बढ़ते न? लेकिन इसने तो बच्चों को निर्वंश किया! इसे जैन कैसे कहेंगे? समझना तो पड़ेगा ही न सच? कब तक ऐसी धांधली चलेगी? सही समझना पड़ेगा, सही जानना पड़ेगा तो आत्मा जानने को मिलेगा। जब पर-रमणता जाती है, तब स्व-रमणता उत्पन्न होती है। रमणता किसे कहते हैं, वह आपको समझ में आया न? ठेठ तक शास्त्रों से खेलते हैं, गुरु-शिष्यों से खेलते हैं और शिष्य-गुरुओं से खेलते हैं और कहते क्या हैं कि, 'यह मोक्ष का रास्ता है।' अरे, नहीं है यह मोक्ष का रास्ता ! गुरुओं से खेलता है और शास्त्रों से खेलता रहता है रोज़! साधु, महाराज, आचार्य सभी शास्त्रों से खेलते रहते हैं। भगवान ने कहा है कि तू अंत तक खिलौने से ही खेलता है, इससे तुझे क्या मिला? तू खिलौने से खेला है, इसलिए मोक्ष के लिए गेट आउट। तब वह कहेगा, 'भगवान ये आपके शास्त्र, आगम, मैं सभी से खेलता हूँ न!' तब भगवान कहेंगे, 'लेकिन तू गेट आउट, तू खिलौनों से खेला है, एक क्षण के लिए भी आत्मा से नहीं खेला है।' हम स्व-रमणता से मोक्ष देते हैं! इसीलिए तो मैंने तुम सब को पुस्तक पकड़ने के लिए मना किया है न! स्व में रमणता करते रहो। जिसे स्व प्राप्त नहीं हुआ है, वे सभी खिलौनों से खेलते रहते हैं। ये सभी आचार्य-वाचार्य, जो पूरे वर्ल्ड में हैं, वे सभी खिलौनों से खेलते रहते हैं। सिर्फ अपने यहाँ के महात्मा ही आत्मा