________________ स्व-रमणता : पर-रमणता 475 साल हो गए शादी के, क्या है? बेटी है या बेटा? नहीं, कुछ भी नहीं?' इसलिए फिर मन में होता है कि इस खिलौने की कमी है, इसलिए वापस उस खिलौने में पड़ जाता है। जब दूसरा एक बेटा बाईस साल का हो जाए, तब कहेगा, 'नहीं, मुझे तो दीक्षा लेनी है!' 'तुझे यह जीवित गुड़िया नहीं चलेगी?' तो वह कहेगा, 'नहीं, मुझे वह खिलौना नहीं चलेगा, मैं तो त्यागी खिलौने ढूँढूँगा। जो ऐसी जीवित गुड़िया काम में नहीं लेते, अब वे हमारे खिलौने!' कुछ लोगों की शादियाँ होती हैं, बच्चे होते हैं, फिर उनके उदय ऐसे आए, कि पत्नी के साथ झगड़े होने लगे, यानी उसे त्याग का उदय आया। इसलिए वह क्या करता है कि पत्नी से ज़बरदस्ती लिखवा लेता है कि, 'मैं राजी-खुशी से मेरे पति को मोक्ष का काम निकाल लेने के लिए जाने दे रही हूँ,' इस प्रकार पत्नी-बच्चे को रुलाकर लिखवा लेता है! ये सभी पत्नी-बच्चों को रुला-रुलाकर आए हैं। थोड़े-बहुत होंगे कि जिन्होंने विवाह नहीं किया और अन्य कुछ ऐसे होंगे कि जिन्हें विवाह करने को मिला ही नहीं होगा! अन्य कुछ थोड़े-बहुत हैं कि जिनके घर खाने को भी नहीं था। बाकी थोड़े-बहुत हैं वे मूर्ख, पढ़ने में कमज़ोर, बाकी सभी बातों में मूर्ख, लेकिन इतनी अक़्ल में पहुँचे हुए हैं कि इस संसार में यहाँ रोज़ राशन लेने जाना पड़ता है, नौकरी करने जाना पड़ता है, तो यह उपाधि उन्हें पसंद नहीं आती, इसलिए कहेंगे कि, 'साधुपन में तो सिर्फ नंगे पैर चलना पड़ता है, बस इतना ही दुःख है न! लेकिन लोग बाप जीबाप जी तो करेंगे! कुछ आता है या नहीं, वह कौन पूछता है? यानी कुछ तो इसी तरह घुस गए हैं! और इनमें सच्चे साधु भी हैं, पाँच-दस प्रतिशत! कुछ करोड़ों रुपये रखकर भी आ जाते हैं, उनसे पूछे कि आपको रुपयों से खेलना अच्छा नहीं लगा, ऐश्वर्य से खेलना अच्छा नहीं लगा, पत्नी से खेलना अच्छा नहीं लगा? यहाँ किसलिए, कौन से खिलौनों से खेलने आए हो?' तब वह कहेगा कि, 'समाज कल्याण करना है।' 'अरे, कौन से जन्म में तू समाज का कल्याण किए बगैर रहा है? तू तेरा ही कल्याण कर न! तेरा खुद का कल्याण किए बिना समाज का कल्याण किस तरह हो पाएगा भाई?'