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________________ 464 आप्तवाणी-२ 'प्रत्यक्ष सद्गुरु योगथी स्वच्छंद ते रोकाय, अन्य उपाय कर्या थकी प्राये बमणो थाय।' सच्चा गुरु - सच्चा शिष्य इन साधु-सन्यासियों को क्या है कि कोई किसी के अधीन है ही नहीं। यदि किसी के अधीन रहेंगे तो दोनों के बीच में क्लेश नहीं होगा। गुरु शिष्य के अधीन रहे या फिर शिष्य गुरु के अधीन रहे तो हल निकलेगा। गुरु शिष्य के अधीन रहे तो क्या परेशानी है? आँखें नहीं होती तब गुरु शिष्य के अधीन रहता ही है न? तो एक जन्म स्वस्थ आँखों से भी शिष्य के अधीन रहो न, तो हल आ जाएगा! मन में गुरु को ऐसा लगता है कि शिष्य दुरुपयोग करेगा, वह क्या तेरा दुरुपयोग करनेवाला है? उसके हाथ में क्या सत्ता है? वह भी प्रकृति के नचाने से नाचता है न! वह भी लटू ही है न! लेकिन आज तो सच्चे नि:स्पृही गुरु मिलने भी मुश्किल है। गुरु शिष्य से स्वार्थ रखता है और शिष्य गुरु से स्वार्थ रखता है, वे हमेशा स्वार्थ में ही रहते हैं। किसी को मोक्ष की पड़ी ही नहीं है। मोक्ष की पड़ी हो तो उसके बाप की सौगंध! शिष्य बढ़ाने और पूजे जाने के ही कामी हो चके हैं! इनमें सौ में से दो-पाँच एक्सेप्शन केस हो भी सकते हैं। भगवान ने क्या कहा है कि, "संसार में सब करना, झूठ बोलना, लेकिन धर्म में उल्टी 'प्ररूपणा' मत करना।" उससे बहत बडी जोखिमदारी आती है। भगवान के कहे हुए ऐसे वाक्यों को दबा दिया है, क्योंकि वे समझते हैं कि लोग जान जाएँगे तो क्या होगा? भगवान ने तो बहुत कुछ कहा है! वीतरागों के समय में आचार्य और महाराज कितने समझदार होते थे? 80 साल के आचार्य महाराज हों और 18 साल का नया दीक्षित साधु हो और अगर वह बड़े आचार्य से कहता कि, 'महाराज, ज़रा मेरी बात सुनेंगे?' तब महाराज को इतना अधिक असर हो जाता कि मेरी इतनी अधिक अजागृति कि सामनेवाले को, छोटे को, ऐसा कहने की बारी आई! जैनों के आचार्य तो सामनेवाले का सुनते हैं। अरे, विधर्मी की भी ठंडे कलेजे, ज़रा भी कषाय किए बिना सुनते हैं। आज तो कोई किसी का सुनने को तैयार ही नहीं है!
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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