________________ 462 आप्तवाणी-२ भुलभुलैयावाली है! अन्य मार्ग अनेक हैं, और फिर ऑर्नामेन्टल हैं ! कोई सच्चा राहबर हो, उसी से मोक्ष का मार्ग पूछा जाना चाहिए और वे भी फिर निःस्वार्थी राहबर होने चाहिए। धर्म में व्यापार नहीं होना चाहिए जो लोग खुद कोई भी त्याग करते हैं और दूसरों से करवाते हैं, वे सभी अभ्यासी कहलाते हैं। गुरु भी त्याग करें और शिष्य से भी त्याग करवाएँ, तो हम नहीं समझ जाएँ कि ये लोग विद्यार्थी हैं?! ये माला फेर रहे हों तो हम नहीं समझ जाएँगे कि ये स्कूल में पढ़ रहे हैं? उन्हें हम पूछे कि, 'साहब, पढ़ाई पूरी हो चुकी है क्या?' तो वे कहते हैं, 'पढ़ तो चुका हूँ, लेकिन माला तो फेरनी ही पड़ेगी न?' नहीं, मोक्ष में जाना है लेकिन लकड़ी की माला का और मोक्ष का बैर है। मोक्ष के लिए तो स्वरूप की रमणता चाहिए। यह तो, लकड़ी की रमणता रहती है, उससे मोक्ष नहीं होता। यह तो जो व्यापार लगाकर बैठे हैं, उन्हें चेतावनी देने के लिए कहना पड़ता है। धर्म में व्यापार नहीं होना चाहिए, व्यापार में धर्म होना ही चाहिए। जहाँ धर्म में व्यापार घुस गया, पैसों का व्यवहार घुस गया तो समझ जाना कि यह रियल धर्म नहीं है, सच्चा धर्म नहीं है। __ किसी के कहे अनुसार चलेगा तो भी मोक्ष में जा सकेगा, लेकिन वह भी नहीं करता है, खुद की अक्ल से ही चला है। इसलिए गुरु बनाने के लिए कहा है, लेकिन गुरु बगैर ठिकाने के मिलते हैं - मार्केट मटीरियल, तो फिर क्या हो? यह तो गुरु के साथ करार नहीं किया उतना अच्छा है, नहीं तो कहेंगे, 'क्यों, पाँच साल का करार था और दो साल में जा रहे हो?' वीतराग मार्ग ऐसा नहीं होता। गुरुकिल्ली के बिना गुरु कैसे? इस जगत् में सच्चा गुरु मिलना मुश्किल है। गुरु को शिष्य से स्वार्थ और शिष्य को गुरु से स्वार्थ, दोनों निरंतर इसी में रहते हैं, वे दोनों ही डूबेंगे। गुरु का अर्थ क्या है? गुरु अर्थात् भारी, वे खुद डूबते हैं और दूसरे को भी डूबोते हैं ! इसलिए जो यों ही गुरु बन बैठे हैं वे