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________________ 446 आप्तवाणी-२ का अस्पष्ट अनुभव हो जाता हैं, और जब से यह वेदन शुरू होता है, तभी से संसार का वेदन बंद हो जाता है। एक ही जगह पर वेदन हो सकता है, दो जगहों पर वेदन नहीं हो सकता। जब से आत्मा का वेदन होना शुरू होता है, वही आत्मा का ‘स्वसंवेदन' है और वह धीरे-धीरे बढ़कर 'स्पष्ट' वेदन तक पहुँचता है! जगत् के सभी सब्जेक्ट जान ले, लेकिन वह अहंकारी ज्ञान है और वे बुद्धि में समाते हैं और निअहंकारी ज्ञान वह ज्ञान कहलाता है। निअहंकारी ज्ञान वह स्व-पर प्रकाशक है और वह पूरे ब्रह्मांड को प्रकाशमान करे, ऐसा है! बुद्धि का, अहंकारी ज्ञान परप्रकाशक है, वह लिमिट में है और अवलंबित है। यह तो भान नहीं है, इसलिए 'मैं वैद्य हूँ, मैं इन्जीनियर हूँ' ऐसे अवलंबन पकड़ लिए हैं। सभी मोक्ष के लिए प्रयत्न कर रहे हैं, लेकिन वह मार्ग मिलता नहीं है और चतुर्गति में भटकता रहता है। ज्ञानी ही समर्थ पुरुष हैं, वे तर चुके हैं और दूसरों को तारते हैं! नियाणां और शल्य अनंत जन्मों से मोक्ष की इच्छा है और जब क्रमिकमार्ग में मोक्ष 'यह' ज्ञान मिला है, उसे तो नियाणां करना हो फिर भी नहीं हो सकेगा, क्योंकि यह अक्रम मार्ग है! नियाणे किसे होते हैं? शल्यवाले में उत्पन्न होते हैं। निःशल्य होने के बाद नियाणां कैसे हो सकता है? शल्य मतलब भीतर चुभता रहता है। यह गद्दी चुभे तो कहता है कि, 'दूसरी अच्छी गद्दी लानी है' वह उसका नियाणां करता है। यह नियाणां करता है मतलब खुद के पास जितनी पुण्य की संपत्ति हो, उसे नियाणे के लिए दाँव पर लगा देता है! उसके बाद ही नियाणां किया हो, वह प्राप्त होता है। भगवान ने तीन प्रकार के शल्य बताए हैं - मिथ्यात्व शल्य, निदान शल्य और माया शल्य। उनके आधार पर यह नियाणां करता है। शल्य सभी में होता है, निःशल्य हो नहीं पाता। यह 'अक्रम मार्ग' है इसलिए शल्य रहित हो सकता है!
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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