________________ 444 आप्तवाणी-२ के बाद तो कहीं मेहनत करनी पड़ती होगी? वह तो 'ज्ञानीपुरुष' खुद कर देते हैं। ये दाल-चावल, रोटी मेहनत करके बना सकता है, लेकिन वह खुद अपने आप आत्मदर्शन नहीं कर सकता। वह तो 'ज्ञानीपुरुष' करवाते हैं और हो जाता है। 'ज्ञानीपुरुष' मेहनत करवाएँ तब तो हम नहीं कह दें कि, 'मेरा खुद का ही फ्रेक्चर हो चुका है तो मैं मेहनत किस तरह कर सकूँगा?' यदि डॉक्टर के पास जाए और वह डॉक्टर कहे कि, 'दवाई तुझे लानी है, तुझे खुद ही पीसनी है, लगानी है, तब तो हम उस डॉक्टर के पास जाते ही क्यों? हम खुद ही नहीं कर लेते? उसी तरह अगर 'ज्ञानीपुरुष' के पास जाने के बाद मेहनत करनी पड़े तो यहाँ (सत्संग में) आए ही किसलिए? लेकिन 'ज्ञानीपुरुष' के पास तप, त्याग, मेहनत कुछ भी नहीं होता और 'ज्ञानीपुरुष' को किसी भी चीज़ की ज़रूरत नहीं होती, वे खुद ही पूरे ब्रह्मांड के स्वामी होते हैं, उन्हें किस चीज़ की ज़रूरत है? 'ज्ञानीपुरुष' एक क्षण भी इस देह के स्वामित्व भाव में नहीं रहते। जो एक क्षण के लिए भी देह का मालिक नहीं रहता, वह पूरे ब्रह्मांड का मालिक बनता है। बाहर जो गुरु हैं, कुछ नहीं तो उन्हें आखिर में मान की स्पृहा होती है, कीर्ति की स्पृहा होती है। ज्ञानी को तो किसी भी प्रकार की स्पृहा नहीं है। उन्हें तो आप यह हार पहनाते हो, उसकी भी ज़रूरत नहीं है, बल्कि उन्हें उसका भार लगता है और फूलों के कितने ही जीव-जंतु भी ऊपर चढ़ जाते हैं तो उनके लिए ये सब क्यों? यह तो आपके लिए है, आपको ज़रूरत हो तो हार पहनाओ। सांसारिक अड़चनें हों, तो हार पहनाने से दूर हो जाती है। 'शूल का घाव सुई जितना लगता है।' हम उसके कर्ता नहीं हैं, निमित्त हैं। 'ज्ञानीपुरुष' के नैमित्तिक चरण पड़ें तो आपके लिए सभी कुछ अच्छा ही होता है, बाकी, 'ज्ञानीपुरुष' मतलब जिन्हें किसी भी प्रकार की भीख नहीं हैं, लक्ष्मी की, विषयों की, मान की, कीर्ति की, उन्हें किसी भी प्रकार की भीख नहीं होती! मोक्ष यानी क्या? प्रश्नकर्ता : जन्म-मरण का फेरा टले, क्या उसी को मोक्ष कहते