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________________ 438 आप्तवाणी-२ _ 'अपद'-वह मरणपद है। मैं चंदूभाई हूँ,' वह 'अपद' है। 'अपद' में बैठकर जो भक्ति करता है-वह भक्त है और 'मैं शुद्धात्मा हूँ'-वह 'स्वपद' है। स्वपद' में बैठकर जो 'स्व' की भक्ति करता है-वह 'भगवान' है। ये ए.एम.पटेल भीतर प्रकट हो चुके 'दादा भगवान' की रात-दिन भक्ति करते हैं! और हज़ार-हज़ार बार उन्हें नमस्कार करते हैं! जब तक आत्मा संपूर्ण प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक ऐसा रहना चाहिए कि 'ज्ञानीपुरुष' ही मेरा आत्मा है और उनकी भक्ति खुद के ही आत्मा की भक्ति है! भक्ति का स्वभाव कैसा है? जिस रूप की भक्ति करता है, वैसा ही बन जाता है। 'ज्ञानीपुरुष' की भक्ति में सबसे उच्च कीर्तनभक्ति है। कीर्तनभक्ति कब उत्पन्न होती है? कभी भी अपकीर्ति का विचार नहीं आए, भले ही कितना ही उल्टा हो तो भी अच्छा ही दिखे। जबकि 'ज्ञानीपुरुष' में उल्टा कुछ है ही नहीं। कीर्तनभक्ति में तो नाम मात्र की भी मेहनत नहीं है! कीर्तनभक्ति से तो ग़ज़ब की शक्ति उत्पन्न होती
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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