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________________ भक्त-भक्ति-भगवान 437 लेकिन वह अंतिम ज्ञान नहीं है। अंतिम ज्ञान तो आत्मा का स्वभाव ही है। केवलज्ञान स्वभावी आत्मा का लक्ष्य हो जाने के बाद उसकी जागृतिरूपी ज्ञान में रहना, वह सबसे ऊँची और अंतिम भक्ति है, लेकिन हम उसे भक्ति नहीं कहते, क्योंकि उसे वापस सब अपने-अपने स्थूल अर्थ में ले जाएँगे। 'ज्ञानीपुरुष' की कृपा प्राप्त कर लेने जैसी है, कृपाभक्ति की आवश्यकता है। ज्ञानियों का प्रतिष्ठित आत्मा' भक्ति में है और ज्ञान, 'ज्ञान' में है। 'खुद' 'शुद्धात्मा' में रहते हैं और 'प्रतिष्ठित आत्मा' से उनके 'खुद' के 'शुद्धात्मा' की और इन 'दादा' की भक्ति करवाते हैं, वह उच्चतम अंतिम प्रकार की भक्ति है! भगवान ने खुद कहा है कि, 'हम ज्ञानी के वश में हैं !' भक्त कहते हैं कि, 'भगवान हमारे वश में है।' तो वे कहते हैं, 'नहीं, हम तो ज्ञानियों के वश हो चुके हैं।' भक्त तो बावले होते हैं, सब्जी खरीदने निकलते हैं और कहीं तालियाँ बजाने बैठ जाते हैं। फिर भी भक्त में एक गुण है कि बस, 'भगवान, भगवान' एक ही भाव, उस भाव से एक दिन सत्यभाव प्राप्त करता है, तब 'ज्ञानीपुरुष' मिल जाते हैं, तब तक 'तू ही तू ही' गाता रहता है और जब 'ज्ञानीपुरुष' मिल जाते हैं तब 'मैं ही मैं ही' गाता है! जब तक 'तू' और 'मैं' अलग हैं, तब तक माया है और 'तू' और 'मैं' खत्म हो गया, 'तेरा-मेरा' खत्म हो गया तो अभेद हो गया! भगवान तो कहते हैं कि, 'तू भी भगवान है। तेरा भगवान पद सँभाल, लेकिन यदि तू नहीं सँभाले तो क्या हो सकता है?' पाँच करोड़ की एस्टेटवाला लड़का हो, लेकिन होटेल में कप-प्लेट धोने जाए और एस्टेट नहीं सँभाले, तो इसमें कोई क्या कर सकता है?! मनुष्य 'पूर्ण' हो सकता है! सिर्फ मनुष्य ही, अन्य कोई नहीं! देवगण भी नहीं! भगवान मतलब क्या? भगवान नाम है या विशेषण है? यदि नाम होता तो हम सब को उन्हें भगवानदास कहना पड़ता, भगवान विशेषण है। जैसे भाग्य पर से भाग्यवान बना, उसी तरह भगवत पर से भगवान बना है। जो भी व्यक्ति इन भगवत् गुणों को प्राप्त करता है, उसे भगवान नामक विशेषण लगता है।
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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