________________ 436 आप्तवाणी-२ वह कहेगा कि, 'मैं क्या करूँ? यह टेढ़ा आदमी ऐसा करता है कि मुझे उसका दोष दिख ही जाता है!' लेकिन ऐसा नहीं करते, उसके सामने तेरी क्या बिसात / स्ट्रोंग व्यक्ति सामनेवाले का उल्टा बोले तो चलेगा, जैसे कि कोई जैन व्यक्ति हो और माँसाहार का अपकीर्तन करे तो उसे क्या परेशानी है? भक्ति और ज्ञान प्रश्नकर्ता : दादा, भक्ति और ज्ञान के बारे में समझाइए। दादाश्री : भक्ति के कई अर्थ हैं, एक से लेकर सौ तक हैं। 95 से 100 तक का हमें अर्थ करना है। यह 'हमारा' निदिध्यासन करना, वही भक्ति है। लोग कच्चे हैं इसलिए भक्ति पर जोर दिया है, ऐसा शास्त्रकारों ने बताया है। सिर्फ ज्ञान हो तो लोग दुरुपयोग करेंगे, कमज़ोर पड़ जाएगा तो फिर बहुत मार पड़ेगी, इस हेतु से भक्ति पर अधिक जोर दिया है। ज्ञान क्या है? ज्ञान ही आत्मा है और 'मैं शुद्धात्मा हूँ' वह अंतिम भक्ति है। 'ज्ञानी' का निदिध्यासन ही 'मैं शुद्धात्मा हूँ' रूपी अंतिम भक्ति है। किसी के भी प्रभाव में न आएँ, ऐसी दुनिया को तुझे एक तरफ रखना आए, उसे समर्पण भाव कहते हैं। यानी कि जो 'ज्ञानीपुरुष' का हो, वही मेरा हो। खुद की नाव उनसे अलग होने ही नहीं दे, जुड़ी हुई ही रखे, अलग हो जाए तो उलट जाएगा न! इसलिए ज्ञानी के साथ ही खुद की नाव जोड़कर रखना। ज्ञान 'ज्ञान-स्वभावी' कब कहलाता है? देह में जो आत्मा है वह 'आत्मा-स्वभावी' रहे तब / इसे यदि हम लोग भक्ति कहेंगे तो लोग उनकी भाषा में ले जाएँगे। उनकी स्थूल भाषा में नहीं ले जाएँ, इसलिए हम ज्ञान पर विशेष जोर देते हैं। जागृति, वही ज्ञान है। मैं शुद्धात्मा हूँ' यदि ऐसा रहा करे तो वह भाव नहीं है, लेकिन वह लक्ष्य-स्वरूप है; और लक्ष्य मिले बिना 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा रहेगा नहीं। 'शुद्धात्मा' का लक्ष्य बैठना वह तो बहुत बड़ी बात है! अति कठिन है ! लक्ष्य मतलब जागृति और जागृति वही ज्ञान है,