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________________ भक्त-भक्ति-भगवान 433 है, अब क्या आपको मुझसे मुक्ति माँगने की इच्छा होती है? प्रश्नकर्ता : नहीं दादा। दादाश्री : मुक्ति दे देने के बाद वापस अब क्या लिखवाना बाकी है? एक ही बार चेक लिखवा लेना होता है कि 99,999 रुपये और 99 पैसे! मुक्ति तो दी जा चुकी है, तो अब क्या बचा? भक्ति रही। यह 'अक्रम मार्ग' है, जगत् का 'क्रमिक मार्ग' है। क्रमिक मार्ग मतलब पहले भक्ति और फिर मुक्ति और इस अक्रम मार्ग में पहले मुक्ति है, फिर भक्ति है! अभी तो ये लोग मुक्ति लिए बिना भक्ति करने जाएँ तो भक्ति रहेगी ही नहीं न! अंदर हज़ारों प्रकार की चिंताएँ, उपाधियाँ रहती हों तो फिर भक्ति कैसे रह पाएगी? और अगर मुक्ति पहले प्राप्त कर ली हो तो, ये सब चैन से बैठे हैं न, यहाँ पर ये सब बैठे हैं वैसे बैठना होता है! ये सब इस तरह चैन से कैसे बैठे हैं? जैसे यहाँ से उठना ही नहीं हो वैसे? मुक्ति है इनके पास-इसलिए! आपका खुलासा हुआ न? यहाँ सभी खुलासे होने चाहिए। आप और मैं एक ही हैं, लेकिन आपको भेद महसूस होता है। मुझे भेद नहीं लगता, क्योंकि भेदबुद्धि से भेद दिखता है। 'मैं चंदूलाल हूँ' वह भेदबुद्धि अभी तक है न आप में? आपकी भेदबुद्धि जा चुकी है? प्रश्नकर्ता : नहीं, दादा। दादाश्री : इसीलिए तो, जब तक वह भेदबुद्धि है तब तक भेद लगता है। यह अलग और वह अलग। मेरी बुद्धि अभेद हो चुकी है, आपका आत्मा 'मैं' ही हूँ, इनका आत्मा भी 'मैं' ही हूँ, सभी में 'मैं' ही बैठा हुआ हूँ, तब फिर किसी के साथ झंझट कहाँ रही? भगवान का पता दादाश्री : आपका घर कौन चलाता है? प्रश्नकर्ता : ईश्वर।
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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