________________ 430 आप्तवाणी-२ प्रश्नकर्ता : नहीं। आराधना करते हैं, वह भक्ति है न? दादाश्री : पुस्तक पढ़ते-पढ़ते जिनके वाक्यों पर श्रद्धा बैठे, कृष्ण के वाक्यों पर श्रद्धा बैठे तो कृष्ण की भक्ति होती है। जिनके वाक्यों के साथ एडजस्टमेन्ट होता है उन पर श्रद्धा बैठती है, फिर उनकी भक्ति होती है। दूसरों के वाक्यों पर श्रद्धा बैठ जाए तो पहलेवाले के साथ एडजस्टमेन्ट नहीं हो पाता, वह श्रद्धा डगमगा जाती है। यहाँ तो निश्चयपूर्वक श्रद्धा है, इसे प्रतीति कहते हैं। आराधना - विराधना प्रश्नकर्ता : आराधना किसे कहते हैं? दादाश्री : विराधना कब तक कहलाती है कि, किसी का मन दु:खाना। उससे उल्टा किया जाए तो उसे आराधना कहते हैं। जगत् में जो होता है, वह तो अपराध है। आराधना यदि उत्तर है तो विराधना दक्षिण है। आराधना हुई मतलब वहाँ राधा आती है, इसलिए वहाँ पर कृष्ण आते ही हैं! प्रश्नकर्ता : दादा निरंतर याद रहते हैं-वह क्या है? दादाश्री : वह निदिध्यासन कहलाता है। निदिध्यासन से तद्रूप हो जाते हैं और उनकी सारी शक्तियाँ खुद को प्राप्त होती हैं। श्रवण और मनन से निदिध्यासन बढ़ता जाता है। प्रश्नकर्ता : अपराध की डेफिनेशन क्या है? दादाश्री : विराधना इच्छा के बिना होती है और अपराध इच्छापूर्वक होता है। प्रश्नकर्ता : वह किस तरह होता है दादा? दादाश्री : ज़िद पर चढ़ जाए तो वह अपराध कर बैठता है, जानता है कि यहाँ विराधना करने जैसा नहीं है फिर भी विराधना करता है। जानता है फिर भी विराधना करे, वह अपराध में जाता है। विराधनावाला छूट जाता