________________ 427 खड़े रहकर देखा कि, 'यह पागल क्या बोल रहा है?' तब फिर सभी ने उन्हें बहुत मारा! कबीर जी तो सच्चे भक्त और चोखे इंसान थे, इसलिए मार भी बहुत खाई थी। सच्चा भक्त तो कोई-कोई ही होता है। साफ-साफ (नग्न सत्य) नहीं बोलना चाहिए। वाणी कैसी होनी भले ही कितनी भी सत्य वाणी हो, लेकिन यदि वह सामनेवाले को प्रिय नहीं लगे तो वह वाणी किस काम की? इसमें तो ज्ञानी का ही काम है। चारों गुणाकारवाली वाणी सिर्फ 'ज्ञानीपुरुष' के पास ही होती है, सामनेवाले के हित के लिए ही होती है, वाणी बिल्कुल भी खुद के हित के लिए नहीं होती। ज्ञानी को 'पोतापणु (मैं हूँ और मेरा है, ऐसा आरोपण, मेरापन) होता ही नहीं है, यदि पोतापणुं रहे तो वह ज्ञानी ही नहीं है। ___कबीर जी एक दिन शाम को दिल्ली में घूमने निकले, रास्ते में बहुत भीड़ थी, वे देखकर गाने लगे, 'माणस खोजत मैं फिरा, माणस का बड़ा सुकाल, जाको देखी दिल ठरे, ताको परियो दुकाल।' लोग तो बहुत हैं, लेकिन दिल को ठंडक पहुँचे ऐसा कोई नहीं होता न? जिससे दिल को ठंडक पहुँचे ऐसा व्यक्ति क्या समुद्र की सतह ढूँढोगे तो कहाँ से मिलेंगे? एक बार की बात है। एक राजा बहुत उदार थे। एक दिन महल में से बाहर आए और उन्होंने बहुत सारे लोगों को देखा। मंत्री से पूछा कि, 'ये लोग क्यों आए हैं?' मंत्री ने कहा कि, 'ये लोग भूखे हैं इसलिए भोजन माँगने आए हैं।' राजा ने कहा कि, 'तो फिर रोज़ इन लोगों को भोजन दो।' धीरे-धीरे एक-एक व्यक्ति तक बात पहुँच गई और रोज़ लोगों की टोलियाँ राजा के यहाँ खाना खाने के लिए आने लगी। मंत्री तो विचार में पड़ गए कि, 'ये तो फँस गए। रोज़ हज़ारों लोग आते हैं, यह कैसे पुसाएगा?' उन्होंने एक युक्ति ढूँढ निकाली और राजा की अनुमति ले ली।