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________________ भक्त-भक्ति-भगवान 425 में आत्मा देख सकते हो। भक्तों ने 'तू ही, तू ही' गाया हुआ है और आपको तो ज्ञान दिया हुआ है, वह ज्ञान 'मैं ही' का है। तू ही' में भक्त और भगवान में भेद रहता है। भेदबुद्धि रहती है उसमें नया क्या? अखा भगत कह गए हैं कि, 'जो तू जीव तो कर्ता हरि, जो तू शिव तो वस्तु खरी।' यदि जीव और शिव का वह भेद खत्म हो जाए तो परमात्मा बन जाए, अभेद बुद्धि हो जाए तो काम हो जाएगा। व्यवहार में - भक्त और ज्ञानी 'तू ही, तू ही' से संसार है। सभी बड़े-बड़े भक्त आरोपित जगहों पर हैं, इसलिए आकुलता-व्याकुलता रहती है, और यदि 'स्व' में रहें, तो स्वस्थता रहती है। आकुलता-व्याकुलता नहीं रहती है, निराकुलता रहती है। भक्त जब खुश होते हैं, तब बावरे हो जाते हैं और दुःख में डिप्रेस हो जाते हैं। ये भक्त जगत् की दृष्टि से पागल कहलाते हैं, कब पागलपन करेंगे वह कहा नहीं जा सकता। नरसिंह महेता की पत्नी जब जानेवाली थीं, तब हरिजनवास में से भजन गाने के लिए बुलाने आए तो वे गए, और सारी रात कीर्तन, भक्ति, भजन गाए। एक व्यक्ति सुबह आया और कहा, 'महेतानी जी गुज़र गई।' तो महेता गाने लगे, ___ 'भलु थयुं भागी जंजाल, सुखे भजीशुं श्री गोपाल।' 'अच्छा हुआ जंजाल मिटी, अब सुख से भजेंगे श्रीगोपाल।' लेकिन क्या लौकिक रिवाज नहीं करने पड़ते? करने चाहिए, लेकिन ये तो पागलपन करते हैं। जबकि 'ज्ञानीपुरुष' व्यवहार में कहीं भी कच्चे नहीं पड़ते। लौकिक रिवाज में भी एक्जेक्ट ड्रामा करते हैं। जो ड्रामा में कहीं भी नहीं चूकते, वे ज्ञानी ! जहाँ, जिस समय, जो ड्रामा करना हो, वह 'हम' संपूर्ण अभिनय सहित करते हैं। हम काम पर जाएँ, तो वहाँ सब कहते हैं, 'सेठ जी आए, सेठ जी आए।' तो वहाँ हम सेठ का ड्रामा करते हैं। ननिहाल में जाएँ तो वहाँ सब कहते हैं कि, 'भान्जे आए।' तो वहाँ हम भान्जे का ड्रामा करते हैं। गाड़ी में हमसे पूछे कि, 'आप कौन हैं?' तो हम कहते हैं कि, 'पैसेन्जर हैं।' यहाँ सत्संग में आएँ, तब 'ज्ञानीपुरुष'
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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