________________ [47 विभाग ] नमस्कार स्वाध्याय तु वसि थाउं जु आपणई महामांश कापी मूंहहह दिइ / ए तु देई सकइ नहीं / हूं तु भूखिउ / तु हव ए माहरु भक्ष, ए किम मूंकुं? / कुमार कहइ-एहहूइ मूंकि / हूं माहरुं महामांश तूंहहइ यथेष्ट आपुं / इम कही खड्ग काढी जेतलइ मांस कापवा लागउ तेतलइ राक्षस हर्षिउ कहइ-अहो साहसीक परोपकारी सत्पुरुप ! ताहरई साहसिं तूटउ हूं। वर मागि / कुमर कहइ-जु तूं तुठो ठे तु ए बापडानउं मनवांछित परि / राक्षस कहइ-ताहरा कहिआ भणी ते करिसु / पुण देवतार्नु दर्शन निष्फल न थाइ / तेह भणी आ चिन्तामणि रत्न लिइ / इम कही चिंतामणि रता आपी राक्षस अदृश थिउ / कुमार पाछउ गिउ / मित्र नई ते वृत्तांत कहिउ / आधा चाल्या / कुमारिं मार्गि मित्र आगलि पूर्वभवनउं स्वरूप कहिउं / मित्र हसी कहई-अहो मित्र ! तूं रत्नवती परिणीवा जई छई; अनइ ते तु पुरुषद्वेषिणी छइ / ईणइं पुरुषनइ वेषिई तेहy दर्शनइ करवा नही लाभद; संमाषणनी वातइ किहां? / कुमार कहइ-मित्र ! चिंता सी कोजइ ? हिव भाग्य ज फलइ। यतः "अघटितघटितानि घटयति, सुघटितघटितानि जर्जरीकुरुते। विधिरेव तानि घटयति, यानि पुमान् नैव चिन्तयति // " कुमारनइ मनिं पूर्वभवनउ वृत्तांत जाणिआ लगइ एक नउकार जि नी एकांत आस्था अनइ ध्यान छइ / एकवार अरण्यमाहिं एक सरोवरनी पालिं आंबानी छायाई कुमार सूतु छइ / इकडा वनगहनमाहिं सुमन फल चूंटइ छइ / तिशय तु आकाशि एक विद्याधर जाइ छइ / तीणइं जातइ सूतो राजसिंह कुमारनउं रूप देखी चिंतविउं-मझ केडइ जि माहरी भार्या आवइ छइ ते जउ एह पुरुषनउं रूप देखिशइ तो माहरु स्नेह मूकी एह जि ऊपरि अनुराग धरशइ / इसिउं विमासी तेह जि वनगहनमाहिं थिकी किसीइ ऊषधी लेई पाणीसिउं घसी ललाटिं सूक्ष्म तिलक कीधउं / तत्काल कुमार स्त्रीरूपि हूउ / विद्याधर आधउ चाल्यो / लगारेकइ तेहनी भार्या विद्याधरी आवी। तीणइ ते स्त्रीरूप देखी चिंतविउं-सही वलतो आवतो माहरो स्वामी जउ ए स्त्रीहइ देखिसिइ तो एहनइ विपह रातु मुझ सालुं न जोइ / इसिउं विमासी तेह जि वनगहनमाहिंथी अनेरी एक ऊषधी लेई घसी तिम जि तिलक कीधउं / तत्काल स्त्रीरूप टाली पुरुषरूप थिउं / विद्याधरी आघी चाली / ते सघलउ वृत्तांत सुमतिं वृष्यनइ आंतरइ रहिं दीठउ / ते बिन्हइ, ऊषधी वनमाहिथी लेई गांठि बांधी। कुमारहई जगाडी सघलउ वृत्तांत कहिउ / अनुक्रमि पद्मपुरी पहुता / तिहां सुवर्णमय जिनप्रासाद ढूकडा रहइ छई / चिंतामणिनइ प्रभावि सकल मनोवांछित सुख पहुचइ छइ / तिमई जि स्त्रीनइ समूहि वीटी सुखासनि बइठी रत्नवती कन्या प्रासादिं आवी / आगलि थिका कांबडीआ पुरुष तलार पुरुषनई पाछा करइ छइ / तिसिई ते बिन्हइ कारिमी स्त्री थई इकडेरी प्रासादमाहिं आवी ऊभी रही। रत्नवतीइं परमेश्वरनइ आठ प्रकारि पूजा कीधी / पाछी वलतीइं कुमार स्त्री दीठी / देवांगनासमान रूप देखी हर्षि पूछिउं–महानुभागि ! तुम्हे अपूर्ववस्यां दीसउ / किहां तां आव्यां ? तिसइ मित्र स्त्री कहइए माहरी सखी मणिमंदिर नगरथिकी आवी। रत्नवतो कहइ-ए तम्हारी सखी मझनइ देखता मनि