________________ हिन्दी विभाग [87-5] श्रीजिनवल्लभसरि रचित पश्चपरमेष्ठिनमस्कारमाहात्म्य / किं कप्पतरु रे अयाण ! चिंतउ मणभिंतरि, किं चिंतामणि कामधेनु आराही बहुपरिः चित्रावेली काज किसै देसंतर लंबउ, रयणरासि कारण किसै सायर उलंघउ, चौदह पूरव सार युगे, लद्धौ ए नवकार / सयल काज महियल सरै, दुत्तर तरै संसार // 1 // केवलिभासिय रीति जिके नवकार आराहै, भोगवि सुक्ख अनंत अंत परमप्पय साहै; इण जाणे सुररिद्धि पुत्तसुह विलसै बहुपरि, इण जाणे सुरलोक इंद्रपद पामें सुंदरि एह मंत्र सासतो जगे, अचिंत चिंतामणि एह / समरण पाप सवे टलै, रिद्धिसिद्धि नियगेह // 2 // नियसिर ऊपर झाण मज्झ चिंतवै कमल नर, कंचनमय अठदल सहित तिणमांहि कनकवर; तिहां बैठा 'अरिहंतदेव' पउमासण फटिकमणि, सेयवत्थ पहरेवि 'पढमपय' चिंतउ नियमणि निव्वारिय चउगइगमण, पामिय सासय सुक्ख / अरिहंतझाणइ तुम लहो, जिम अजरामर मुक्ख // 3 // (प्रति-परिचय ) आ कृति 'रत्नसागर-मोहन गुणमाला'ना पृष्ठः २०१मांथी लेवामां आवी छ / आ स्तोत्रनी त्रण-चार हस्तलिखित प्रतिओ मेळवी हती, ते बधा उपरथी एक शुद्ध पाठ तारवीने अहीं आपवामां आव्यो छे / आ कृतिनो केटलाक 'वडो नवकार' नामे पण उल्लेख करे छे / आना कर्ता जिनवल्लभसूरि होवानुं कृतिना अंतिम उल्लेखथी जणाय छे / तेओ क्यारे थया अने कोना शिष्य हता ए जाणवा मळ्युं नथी / आ कृतिमां नमस्कारनो महिमा जणाव्यो छे /