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________________ (183) बाह्य तप के 6 प्रकार हैं 1. अनशन-असन्न-अन्न, पाणं-पानी, खाइम-खादिम (मेवा आदि) साइमंस्वादिम (मुखवास पान सुपारी आदि) का त्याग करना। 2. अवमोदारिका-आहार, उपधि (वस्त्रादि), कषाय को कम करना। 3. भिक्षाचर्या-गृहस्थों के यहाँ से निर्दोष आहार लाना। 4. रसपरित्याग-स्वादिष्ट एवं बलवर्धक वस्तुओं का यथाशक्ति त्याग करना। 5. काय क्लेश-स्वेच्छा से, स्वाधीन रूप से निर्जरा के लिए काया को कष्ट देना-कायक्लेशतप है। 6. प्रतिसंलीनता-इंद्रिय, कषाय, योग तथा शय्या-आसन का संकोचन करना। __ इन बाह्य तपों के आचरण से देहाध्यास छूट जाता है। देहासक्ति साधना में विघ्नरूप है। अतः मनीषियों ने इसके त्याग के लिए तपाचरण का उपदेश दिया है। आन्तरिक तप-आन्तरिक तप के भी 6 भेद कहे गये हैं1. प्रायश्चित तप-पाप की पर्याय का जो छेदन करे, उसे प्रायश्चित कहते हैं। 2. विनय तप-गुरुजनों, वयोवृद्ध, गुणवृद्ध का आदर, सन्मान, सत्कार करना विनय तप है। 3. वैयावृत्य-अर्थात् सेवा करना। वृद्ध, ग्लान, बाल, तपस्वी. पदधारियों की सेवा करना वैयावृत्य है। 4. स्वाध्याय-वाचना, पृच्छना, पुनरावर्तन, अनुप्रेक्षा करना। 5. ध्यान-अशुभ ध्यान से निवृत्ति होकर शुभ ध्यान करना। आर्त-रौद्र ध्यान अशुभ है तथा धर्म-शुक्ल ध्यान शुभ ध्यान है। 6. व्युत्सर्ग-छोड़ने योग्य वस्तु को छोड़ना यह व्युत्सर्ग है। इस प्रकार यह 6 प्रकार के बाह्य तथा 6 प्रकार के आन्तरिक तप, कुल मिलाकर इन बारह भेदों में आचार्य स्वयं को संलग्न करते हैं तथा अन्यों को भी प्रेरित करते हैं। (5) वीर्याचार आचार का पाँचवाँ भेद वीर्याचार है। ज्ञान आदि के विषय में शक्ति का अगोपन तथा अनतिक्रम करना वीर्याचार है। ये गुणों में अपने वीर्य को स्फुरित करते हैं। निरंतर ज्ञान, ध्यान, तप, संयम तथा धर्मोपदेश में साथ ही धर्मवृद्धि के
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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