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________________ (182) तीनगुप्ति-मनगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति 1. ईर्यासमिति-यतनापूर्वक चलना। 2. भाषासमिति-यतनापूर्वक बोलना। 3. एषणासमिति-शय्या (स्थानक), आहार, वस्त्र, पात्र आदि निर्दोष ग्रहण करना। 4. आदानभण्डमत्तनिक्षेपणासमिति-यतनापूर्वक भण्डोपकरणग्रहण करना तथा स्थापित करना (रखना)। 5. पारिष्ठपनिकासमिति-उच्चार-दीर्घशंका (बडीनीति), प्रस्रवण-लघुनीति, खेल-श्लेष्म, जल्ल-मैल, सिंघाण-नाक का मैल आदि जीव रहित भूमि में परठना (डालना)। 4. गुप्ति-मन, वचन, काया का गोपन करे। तात्पर्य यह है कि इनका निग्रह करें। इस प्रकार आचार्य भगवंत इनके दोषों को दूर करके, गुणों का पालन, समिति-गुप्ति का पालन स्वयं करते हैं तथा अन्यों से भी पालन कराते हैं। क्योंकि इनका प्रणिधान समस्त चारित्र के उत्पादन, रक्षण और विशोधन में अनन्य साधन रूप है। 4. तपाचार __ आचार का चतुर्थ भेद है-तप। भारतीय आचार पद्धति में तप का स्थान सर्वोपरि रहा है। ब्राह्मण एवं श्रमण संस्कृति में इसे साधना का अपरिहार्य अंग के रूप में मान्य है। जैन परम्परा में इसका अर्थ मात्र कार्य क्लेश या उपवास आदि ही नहीं है, किन्तु इच्छाओं के निरोध के साथ ध्यान प्रायश्चित, स्वाध्याय रूप में भी स्वीकार किया गया है। तप से कर्मों की निर्जरा त्वरित गति से होती है। जैन परम्परा तप के दो भेद स्वीकार करती हैं - 1. बाह्य तप 2. आन्तरिक तप 1. (वही. 9.4) 2. उत्तरा. 29.13, 29.27-28 3. तत्त्वार्थ सूत्र 9.3 'तपसा निर्जराच' 4. उत्तरा. 28.34 5. तत्त्वार्थ सूत्र 9.19-20, औपपातिक सूत्र 30
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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