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________________ (136) सिद्धों का परिवास इस रत्नप्रभा भूमि के बहुसम रमणीय भूभाग से ऊपर, चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र तथा तारों के भवनों से बहुत योजन, सैंकडों, हजारों, लाखों, करोड़ों, क्रोड़ाक्रोड़, योजन से ऊर्ध्वतर-बहुत ऊपर जाने पर सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, कल्प तथा तीन सौ अठारह ग्रैवेयक, विमान-आवास से भी ऊपर विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध महाविमान के सर्वोच्च शिखर के अग्रभाग से बारह योजन के अन्तर पर ऊपर ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी कही गई है। - वह पृथ्वी पैंतालीस लाख योजन लम्बी तथा चौड़ी है। उसकी परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनचास योजन से कुछ अधिक है। वह ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी अपने ठीक मध्य में आठ योजन क्षेत्र में आठ योजन मोटी है। तत्पश्चात् मोटेपन में क्रमशः कुछ-कुछ कम होती हुई सबसे अन्तिम किनारों पर मक्खी की पाँख से पतली है। उन अन्तिम किनारों की मोटाई अंगुल के असंख्यातवें भाग के तुल्य है। सिद्धः सार संक्षेप वे सिद्ध किस स्थान पर प्रतिहत है- आगे जाने से रूक जाते हैं? वे कहाँ प्रतिष्ठित हैं-अवस्थित हैं? वे यहाँ-इस लोक में देह को त्याग कर कहाँ जाकर सिद्ध होते हैं? इसका समाधान ग्रन्थकार बहुत ही सुन्दर रीति से करते हैं अलोक में नहीं जाते। इस मर्त्यलोक में ही देह का त्याग कर वे सिद्ध स्थान में जाकर सिद्ध होते हैं। देह का त्याग करते समय अन्तिम समय में जो प्रदेशघन आकार-नाक, कान, उदर आदि रिक्त या पोले अंगों की रिक्तता' या पोलेपन के विलय से घनीभूत आकार होता है, वही आकार वहाँ-सिद्ध स्थान में रहता है। - 1. वही 156-163 2. वही 164. 1. औपपातिक सूत्र 169
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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