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________________ (135) सिद्ध की ऐतिहासिकता (ख) जैन पारम्परिक रूप में सिद्धों का स्वरूप वहाँ-लोकाग्र में सादि-मोक्ष-प्राप्ति के काल की अपेक्षा से आदि सहित, अपर्यवसित-अन्तरहित, अशरीर, जीवघन-घनरूप-सघन अवगाढ़ आत्मप्रदेश युक्त, ज्ञानरूप साकार तथा दर्शन रूप अनाकार उपयोग सहित, निष्ठितार्थकृतकृत्य, सर्वप्रयोजन समाप्त किये हुए, निरंजन-निश्चल, स्थिर या निष्प्रकम्प, नीरज-कर्मरूप रज से रहित निर्मल, वितिमिर-अज्ञानरूप अंधकार रहित, विशुद्धकर्मक्षय निष्पन्न आत्मशुद्धियुक्त सिद्ध भगवान भविष्य में शाश्वतकाल पर्यन्त (अपने स्वरूप में) संस्थित रहते हैं। वे किस प्रकार रहते हैं? जैसे अग्नि से दग्ध-सर्वथा जले हुए बीजों की पुनः अंकरों के रूप में उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार कर्म-बीज दग्ध होने के कारण सिद्धों की भी फिर जन्मोत्पत्ति नहीं होती। सिद्धयमान के संहनन-संस्थान आदि सिद्ध होते हुए जीव किस संहनन (दैहिक अस्थिबंध) से सिद्ध होते हैं? वे वज्र-ऋषभ-नाराच संहनन से सिद्ध होते हैं। संस्थान छह संस्थानों (समचतुस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, सादि, वामन, कुब्ज, हुंडक) में से किसी भी संस्थान (दैहिक आकार) में सिद्ध हो सकते हैं। अवगाहना सिद्ध जघन्य-कम से कम सात हाथ तथा उत्कृष्ट-अधिक से अधिक पाँच सौ धनुष की अवगाहना में सिद्ध होते हैं। आयुष्य ___ कम से कम आठ वर्ष से कुछ अधिक आयुष्य वाले तथा अधिक से अधिक करोड़ पूर्व के आयुष्य वाले सिद्ध होते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि आठ वर्ष या उससे कम की आयु वाले और कोड़ पूर्व से अधिक की आयु के जीव सिद्ध नहीं होते हैं। 1. औपपातिक सूत्र 154-155.
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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