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________________ (134) यहाँ हम मुक्तात्मा के सदृश निर्गुण ब्रह्म को मान्य कर सकते हैं। बृहदारण्यक उपनिषद् में इस का कथन किया है। वह स्वरूप मुक्त जीवन के तुल्य हो सकता है। किन्तु जैन परम्परा में आख्यात 'सिद्ध' शब्द का ब्राह्मण परम्परा में अभाव ही दृष्टिगत होता है। सिद्ध की भांति भेद, गुण, स्थिति, अवगाहना, का उल्लेख नहीं है। साथ ही सर्वाधिक भिन्नता तो यहाँ है कि जैन परम्परा में सिद्ध पद का अधिकारी प्रत्येक भव्यात्मा हो सकती है। उसमें न लिंग बाधक है न वेश। सिद्ध 15 भेदों से हो सकते हैं। जबकि ब्रह्म स्वरूप इससे अत्यन्त भिन्न है, वहाँ इस ब्रह्म तत्त्व को ईश्वरीय स्वरूप प्रदान किया गया है। सगुण ब्रह्म से तो सृष्टि आदि का उत्पादन होता रहता है, वह भी सिद्ध पद से संगत नहीं और निर्गुण ब्रह्म मात्र ईश्वरीय सत्ता है, वह कर्ममुक्ति के परिणाम स्वरूप नहीं। यही प्रमुख भिन्नता ब्रह्म तथा सिद्ध पद में हैं। ___ बौद्ध दर्शन में सिद्ध-मुक्तात्मा के स्वरूप का वर्णन नहीं वत् उपलब्ध होता है। मुक्त व्यक्तित्व के लिए बौद्ध शब्द है बुद्ध। बुद्धत्व में सर्वज्ञता अन्तर्निहित है। किन्तु बुद्धावस्था मुक्तावस्था नहीं। इसके विषय में एल. एम. जोशी ने लिखा है कि "अन्तर्ज्ञान का अनुभव हो जाने पर विशुद्धि और शान्ति आ जाती है। इसलिए निर्वाण को, विशुद्धि अवस्था को चरम यथार्थ अवस्था कहा है जो बोधि के अनुभव के उपरान्त प्राप्त होती है। वास्तव में यह अनुभव रहस्यात्मक है।" निर्वाण की अवर्णनीयता का विवेचन नागार्जुन ने निम्न शब्दों में अभिव्यक्त किया है-वह क्या है, जो मुक्त किया गया है, न कभी पहुँच पाया है, न विनष्ट हुआ है, न शाश्वत है, न अदृश्य है, और संरचित है। यही निर्वाण है। इस प्रकार बौद्ध दर्शन में निर्वाण की स्थिति अवर्णनीय कही गई है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से 'सिद्ध' शब्द का हिन्दु तथा बोद्ध परम्परा में सर्वथा अभाव है। किन्तु मुक्त शब्द का प्रयोग किया गया है। संभव है यह सिद्ध पद जैन परम्परा का ही मौलिक शब्द है। स्वरूपतः आंशिक स्वरूप में निर्गुण ब्रह्म से किंचित् साम्य अवशय रखता है। 'सिद्ध' शब्द के एतिह्य में ये दोनों परम्पराएं शब्दतः शून्य ही है। अब जैन परम्परा में सिद्ध स्वरूप की ऐतिहासिकता पर दृष्टिपात् करें 5. तैतिरीय उप. 3.1 6. Buddhist Meditation and Mysticism in Buddhism 73.
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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