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________________ (109) सिद्धि प्राप्त करके सदाशिवत्व के कारण परब्रह्म स्वरूप बन जाता है। गुणोत्कर्ष के कारण मंगल के आवासरूप हो जाता है। जन्मादि के कारण न रहने से जन्म जरा और मरण से रहित उनके सर्व अशुभ सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं। अशुभ की अनुबंध शक्ति से भी रहित हो वह अपने शुद्ध आत्म स्वरूप को प्राप्त, गमनादि क्रिया से रहित स्वसहज स्वभाव में स्थित, अनन्तज्ञानवान् और अनंतदर्शनवान् हो जाता है। उन सिद्धों का सुख कैसा होता है? वेदनीय कर्म के क्षय से उत्पन्न उस विषय में कथन है कि जैसे किसी को समस्त शत्रुओं का क्षय होने से, सब व्याधियों का अभाव होने से, सर्व अर्थों का संयोग होने से और सब इच्छाएँ फलीभूत हो जाने से जो सुख प्राप्त होता है, उसकी अपेक्षा सिद्धों का सुख अनन्त गुणा होता है। क्योंकि उनके भावशत्रुओं का क्षय हो चुका है। यह इस प्रकार कि राग-द्वेष मोहित जीवों के अपकारी होने से भाव शत्रु हैं। उन सबका क्षय हुआ है। कर्म का उदय पीड़ाजनक होने से व्याधिरूप हैं। वे कर्म नष्ट हो गये हैं, उत्कृष्ट लब्धियाँ अर्थ हैं, वे प्राप्त हो चुकी है और वे निस्पृहता में स्थित हैं। ___ इस प्रकार सिद्धों का सुख सूक्ष्म है, उसको तात्त्विक रूप से कोई दूसरा जान नहीं सकता। सिद्धों का सुख वास्तव में अचिन्तनीय है। क्योंकि वह बुद्धि का विषय ही नहीं है। वह सुख एक सिद्ध की अपेक्षा से सादि अनन्त है अर्थात् उसकी आदि तो है, पर अन्त नहीं है। परन्तु प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त है। इसी प्रकार एक सिद्ध की अपेक्षा से भी समझना चाहिये। सिद्धपद का व्युत्पत्ति परक अर्थ सिद्ध का तात्पर्य है कि जिन गुणों के द्वारा जो निष्पन्न होता है, परिनिष्ठित होता है, वह सिद्ध कहलाता है। यथा सिद्धौदन। जिनका पुनः साधन नहीं किया जाता। 1. पंचसूत्र 5.1 2. विशेषा. भाष्य गा. 3183-3188 3. आव. सू. 975-328 4. धव. 2, अधि, आव. नियुक्ति 3027
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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