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________________ (108) सिद्ध मुक्तात्मा जैन परम्परा आत्मा की शुद्धावस्था सिद्धावस्था स्वीकार करती है। क्योंकि इस अवस्था में सर्व कर्म मल का क्षय हो जाने से वह मुक्त हो जाता है। जब तक वह कर्म-संयोगी है, तब तक वह संसारी है, छद्मस्थ है। कर्म वियोगी अवस्था ही मुक्तावस्था है। इसी मुक्तात्मा को जैन परम्परा में सिद्ध शब्द से अभिप्रेत किया गया है। इस प्रकार जिन्होंने आठ कर्मों के बन्धन को नष्ट किया है, ऐसे आठ महागुणों सहित परम, लोकाग्र में स्थित और नित्य सिद्ध होते हैं। यह कर्ममल मुक्त आत्मा उर्ध्वलोक के अन्त को प्राप्त करके सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अनन्त, अनिन्द्रिय सुख का अनुभव करता है। वह पाँच प्रकार के संसार यथा-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशबन्ध और मिथ्यात्व का संसर्ग रूपी भाव संसार से मुक्त होता है। जिनके द्रव्य कर्म और भावकर्म भी नष्ट हो गये हैं। जो शरीर रहित हैं, अनंत सुख और अनंत ज्ञान में आसीन है और परम प्रभुत्व को प्राप्त है। वे शुद्धचेतनात्म है अर्थात् केवलज्ञान और केवल दर्शनोपयोग लक्षण वाले हैं। अत्यन्त शान्तिमय है, निरन्जन हैं, नित्य है, कृतकृत्य हैं / जो तीन लोक के मस्तक के शेखर स्वरूप हैं, दुःखों से रहित है, सुख रूपी सागर में निमग्न, अनवद्य अर्थात् निर्दोष हैं। जिन्होंने सर्वांग से अथवा समस्त पर्यायों सहित सम्पूर्ण पदार्थों को जान लिया है। जो वज्रशिला निर्मित अभग्न प्रतिमा के समान अभेद्य आकार से युक्त हैं। जो सब अवयवों से पुरुषाकार होने पर भी गुणों से पुरुष के समान नहीं है। क्योंकि पुरुष सम्पूर्ण इंद्रियों के विषयों को भिन्न देश में जानता है, परन्तु जो प्रतिप्रदेश में सब विषयों को जानते हैं, वे सिद्ध हैं। जो इन्द्रियों के व्यापार से युक्त नहीं हैं, अवग्रह आदि के द्वारा भी पदार्थ के ग्राहक नहीं है और जिनके इन्द्रिय सुख भी नहीं हैं, ऐसे अतीन्द्रिय अनन्तज्ञान और सुखवाले जीवों को इन्द्रियातीत सिद्ध जानना चाहिए। इस प्रकार निश्चय से शुद्धात्मोपलब्धि ही सिद्ध पर्याय का लक्षण है। 1. नियम सार 72, क्रिया कलाप 3.1.2.142 2. पंचास्तिकाय 28, पंच सूत्र (चिरंतनाचार्य) 1.7. 3. सर्वार्थसिद्धि 2.10.169.7 4. राज वार्तिक 2.10.2.124.23. 5. बृहद् नयचक्र 107 6. पंचास्तिकाय ता. वृ 101, 174.13 7. पंचसंग्रह (प्रा.) 31, धवला 1.1, 1, 23-127-200, गोम्मट सारजीव. 68.177. 8. धवला 1, 1, 1, 26-28/48, महापुराण 21.114-118, द्रव्यसंग्रह 14.41, तत्त्वानुशासन 120-122 9. परमात्म प्रकाश 1.16-25, चारित्रसार-३३-३४.
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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