________________ 84 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी मरण के बन्धन से रहित होते हैं / अतः वे अव्याबाध और शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं। वे अतुल सुखसागर और अनुपम अव्याबाघ सुख को प्राप्त हुए होते हैं | अनन्तसुख वाले वे अनन्तसुखी, वर्तमान एवं अनागत सभी कालों में पूर्ववत् ही सुखी रहते हैं।' आचार्य विमलसूरिभी उक्त मत का समर्थन करते हुए कहते हैं कि 'जो सिद्ध जीव होते हैं उनका सुख अनन्त, अनुपम, अक्षय, अमल एंव किसी भी प्रकार की बाधाओं से सदैव मुक्त होता है। श्री योगीन्दु ने तो उनके सुख को शाश्वत (सुख) बतलाया है। वे कहते हैं कि 'सिद्ध का तो स्वभाव ही परमानन्द स्वरूप है, फिर सुख शाश्वत क्यों नहीं होगा? सिद्धों का सुख देवेन्द्र एवं चक्रवर्तियों के सुख से बढकर : ___ आचार्य शिवार्य कहतें हैं कि जो बाधारहित, अनुपम एवं परम सुख सिद्धों का प्राप्त है, वह परम ऋद्धि चक्रवर्तित्व आदि के धारक परमपुरुषों को भी प्राप्त नहीं होता। इस लोक में देवेन्द्र और चक्रवर्ती शब्द, रस, रूप, गन्ध और स्पर्शजन्य जिस उत्तम इन्द्रिय सुख को भोगते हैं, वह सुख सिद्धों के सुख का अनन्तवां भाग भी नहीं है। सब मनुष्यों, तिर्यञ्चों और देवों को तीनों कालों में जितना सुख होता है वह समस्त सुख सिद्धों के एक क्षणमात्र में होने 1. णिच्छिन्न सव्वदुक्खा, जाइजरामरणबधणविमुक्का। अव्वावाहं सुक्खं, अणुहोति सासयं सिद्धा।। अतुल सुहसागरगया अव्वावाहं अणोवमं पत्ता। सव्वमणागयमद्धं चिट्ठति सुही सुहं पत्ता।। ओवाइयं, 16 5(21-22) 2. जो होन्ति सिद्धजीवा, ताण अणन्तं सुहं अणोवमियं / अक्खयमयलमणन्तं, हवह सयाबाहपरिमुक्कं / / पउम०२.६३ 3. अण्णु वि बन्धु वि तिहुयणहं सासय-सुक्ख-सहाउ। तित्थु जि सयलु विकालु जिय णिवसइ लद्ध-सहाउ।। परमात्म० 2.202 4. णिच्चु णिरंजणु णाणमउ परमाणंद-सहाउ। जो एहउ सो संतु सिउ तासु मुणिज्जहि भाउ।। वही, 1.17 5. परिमिड्ढिपत्ताणं मणुसाणं णत्थि तं सुहं लोए / अव्वाबाधमणोवमं परमसुहं तस्स सिद्धस्स / / भग० आ०, गा०२१४१ देविंदचक्कवट्टी इंदियसोक्खं च तं अणुहंवति / , सहरसरुवगंधप्फरिसप्पयमुत्तमं लोए / / अव्वाबाधं च सुहं सिद्धाजं अणुहवंति लोगग्गे / तस्स हुं अणंतभागो इंदियसोक्खं तयं होज्ज / / वही, गा०२१४२-४३