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________________ सिद्ध परमेष्ठी 83 शरीर से युक्त होता है, उस शरीर का जितना आकार होता है, उसके तृतीय भाग न्यून (दो तृतीयांश) सिद्धों की अवगाहना होती है क्योंकि शरीर के न होने से सिद्धों में नासिका आदि के छिद्रभाग घनरूप हो जाते हैं। इस प्रकार सिद्धों की आकृति की कल्पना उनके अन्तिम जन्म के शरीर के आधार पर ही की गई है। यद्यपिवे जीव रूपआदि रहित होते हैं फिर भी जो यह आत्म-प्रदेशों के विस्तार की कल्पना की गई है, वह आकाश प्रदेश में स्थित आत्मा के अदृश्य प्रदेशों की अपेक्षा से है। यहां पर यह भी ज्ञातव्य है कि अल्पस्थान में अनन्त सिद्ध रहते हैं परन्तु उनमें परस्पर उपरोध नहीं होता क्योंकि उनमें अवगाहन शक्ति विद्यमान है। एक छोटे से स्थान में जब मूर्तिमान नाना दीपकों के प्रकाश में भी परस्पर घात करने वाला विरोध नहीं देखा जाता तब अमूर्तिक सिद्धों में तो उपरोध हो ही कैसे सकता है? 2 अमूर्त होने से एक आत्मा के प्रदेशों में अन्य आत्मा के प्रदेश भी रह सकते हैं। इस प्रकार एक स्थान पर रहते हुए अनेक सिद्धों में परस्पर किसी भी प्रकार का उपरोध नहीं होता है। (छ) सिद्धों का अनुपम सुख : सिद्ध भगवान् मुक्त अवस्था में सुख का अनुभव करते हैं। उनका सुख सांसारिक सुख की तरह नहीं होता। सिद्धों को जो सुख मिलता है, वह तो अनिर्वचनीय है |आचार्य कुन्दकुन्द ने उसे अतिशय,अव्याबाघ,अनन्त,अनुपम, इन्द्रियविषयातीत, अप्राप्त और अच्यवन (अचल) कहा है।' __ औपपातिकसूत्र में कहा गया है कि जैसे कोई मलेच्छ नगर की अनेकविध विशेषताओं को देख चुकने पर भी उपमा न मिलने से उनका वर्णन नहीं कर सकता, वैसे ही सिद्धों का सुख अनुपम होता है। वे जन्म, जरा और 1. उस्सेहो जस्स जो होइ भवम्मि चरिमम्मि उ / तिभागहीणा तत्तो य सिद्धाणोगाहणा भवे / / उ० 36.64 अल्पक्षेत्रे तु सिद्धानामनन्तानां प्रसज्यते। परस्परोपरोधोऽपि नावगाहनशक्तितः / / नानादीपप्रकाशेषु मूर्तिमत्स्वपि दृश्यते। न विरोधः प्रदेशोऽल्पे हन्तामूर्तेषु किं पुनः।। त०सा० 8.13-14 3. अइसयमव्वावाहं सोक्खमणतं अणोवमं परमं / इंदियविसयातीदं अप्पत्तं अच्चवं च ते पत्ता / / दशभक्ति, पृ०५६ 4. जह णाम कोइ मिच्छो, नगरगुणे बहुविहे वियाणंतो। न चएइ परिकहेउं, उवमाए तहिं असंतीए।।। इय सिद्धाणं सोक्खं, अणोवमं णत्थि तस्स ओवम्म। किंचि विसेसेणेत्तो, ओवम्ममिणं सुणह वोच्छं।। ओवाइयं, 16 5(16-17) .
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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