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________________ 85 सिद्ध परमेष्ठी वाले सुख के भी बराबर नहीं हैं।' उपर्युक्त वर्णन से यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि सिद्ध जीव शाश्वत अनन्त, सभी प्रकार की बाधाओं से रहित एवं अनुपम अलौकिक सुख का आनन्द लेते हैं। उनका सुख देवों एवं चक्रवर्तियों आदि के सुख से भी बढ़कर होता है। यहां पर आशंका हो सकती है कि जो सिद्ध आठों कर्मों से रहित हैं,सुख की साधनभूत सामग्री जिनके पास है ही नहीं, फिर वे सुखी कैसे हो सकते हैं? इसके समाधान में आचार्य गुणभद्र कहते हैं कि तपस्वी जो स्वाधीनतापूर्वक कायक्लेशआदि के कष्ट को सहते हैं, वह भीजब उनको सुखकर प्रतीत होता है तब फिर जोसिद्ध स्वाधीनसुख से सम्पन्न हैं वेसुखी क्योंकर न होंगेअर्थात् अवश्य ही होंगे। पराधीनता का अभाव ही सुख : पराधीनता का जो अभाव है वही वास्तव में सुख है, और वह सिद्धों में पूर्णतया विद्यमान है। सम्पति आदि के संयोग से जो सुख होता है वह पराधीन (सुख) है क्योंकि तदनुरूप पुण्य के उदय से जब तक उन परपदार्थों की अनुकूलता है तभी तक वह सुख रहता है। इसके पश्चात् वह सुख नष्ट हो जाता है परन्तु जो सिद्धों का स्वाधीन सुख है वह शाश्वत है, सदैव उसी प्रकार बना रहता है। आचार्य अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं कि 'इस लोक में विषय, वेदना का अभाव, विपाक और मोक्ष इन चार अर्थों में सुख शब्द का प्रयोग होता है / जैसे अग्नि सुख रूप है, यहां विषय अर्थ में सुख शब्द प्रयुक्त हुआ है / दुःख का अभाव होने पर व्यक्ति कहता है कि 'मैं सुखी हं',यहां वेदना के अभाव में सुख शब्द आया है। पुण्यकर्म के उदय से इन्द्रियों के इष्ट पदार्थों से उत्पन्न हुआ सुख होता है, यहां विपाक अर्थ में सुख शब्द का प्रयोग है और कर्मजन्य क्लेशों से छुटकारा मिलने से मोक्ष में उत्कृष्ट सुख होता है, यहां मोक्ष अर्थ में सुख शब्द का प्रयोग है। इस प्रकार मोक्ष को प्राप्त हुए सिद्ध भी सुख का अनुभव करते हैं। मोक्ष में सिद्धों के यद्यपिशरीर नहीं है और न ही किसी कर्म का उदय है, फिर भी कर्मजन्य क्लेशों से छुटकारा मिल जाने के कारण उन्हें सर्वश्रेष्ठ सुख प्राप्त होता है। सुख आत्मा का स्वाभाविक गुण है परन्तु मोह आदि कर्मों 1. तीसु वि कालेसु सुहाणि जाणि माणुसतिरक्खदेवाणं / सव्वाणि ताणि ण समाणि तस्स खणमित्तसोक्खेण / / वही, गाा०२१४५ 2. स्वाधीन्यादुःखमप्यासीत्सुखं यदि तपस्विनाम्।। स्वाधीनसुखसंपन्ना न सिद्धाः सुखिनः कथम् / / आत्मानुशासनम्, श्लोक 267 3 दे०-त०सा०८.४६.४६
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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